जीवन के ऋण
मनुष्य-जीवन जन्म से ही तीन प्रकार के ऋणों से बंध जाता हैं। पहला ऋण ममता का, दुसरा समाज का व तीसरा मातृभूमि का। यदि प्रत्येक मानवीय जीवन अपनी इन तीन तरह के ऋणों के प्रती कृतज्ञता में बीते तो आत्म संतुष्टि को प्राप्त कर सकता हैं।
इन तीन ऋणों को उतारने के लिये स्वयं को जागृती कर सतर्कता बरतना पहली प्राथमिकता हैं। मात्र सेवा भाव पर्याप्त नहीं जबतक की हम सेवार्थ के रक्षक ना बन सकें। जिस तरह परिवार के लिये सेवा सहित उसकी सुरक्षा कि जिम्मेदारी हमें निभानी होती हैं उसी तरह मातृभूमि कि सेवा व रक्षा दोनों ही हमारे दायित्व हैं तथा जिसमें देश कि सुरक्षा सर्वोपरि हैं। हम उस धरोहर के उपभोग लायक कभी नहीं हो सकते जिसकी रक्षा का हममें समर्थ नहीं। चाहे व परिवार हो या राष्ट्र, निःस्वार्थ व त्याग कि भावना बिना ना ही सेवा हो सकती हैं और ना ही रक्षा। यह मात्र तभी संभव हैं जब हम स्वयं अपने परिवार व राष्ट्र कि जड़ों से परिचित हो, उनसे जुड़े हो व इनके प्रति स्वयं में लगाव हो जिससे इनकी मर्यादा व इनके गौरव को बनाये रखने के लिये हम तत्पर बन सकें।
शास्त्रों के अनुसार हमें मनुष्य जिवन अनेकों योनियों से गुजरने के बाद मिलता हैं। सृष्टि के संपूर्ण जिवत प्रजातियों में मानव जीवन ही सबसे श्रेष्ठ हैं क्यों कि एक मात्र मनुष्य ही हैं जो स्वयं के स्वार्थ पुर्ती से परे भी सृष्टि कल्याण कि कल्पना कर सेवा का दायित्व बखूबी निभा सकता हैं। इस तरह मनुष्य जीवन प्राप्ति के पश्चात भी यदि हम सृष्टि कल्याण में अपने जीवन का योगदान न कर सकें तो ऐसा मनुष्य-जीवन भी जीव, जंतु व पशु तुल्य ही कहलाने योग्य होगा।
राष्ट्रसेवा का संकल्प ही श्रेष्ठ जिवन का श्रोत
जीवन के उतार-चढ़ाव में हम स्वयं हेतु कइ निजी लक्ष्यों को निर्धारित करते हैं व उन्हें पाने के लिये हर कोशिश में जुट जाते हैं। निजी लक्ष्यों के साथ-साथ समाज व राष्ट्र सेवा के लिये भी समय-समय पर हमें लक्ष्य निर्धारित करते हुए उनके प्रती तत्पर होना जरूरी हैं। जहाँ निजी लक्ष्य पारिवारिक खुशियों को संजोएंगे वहीं हमारे राष्ट्रसेवा के लक्ष्य देश व समाज कि सेवा व सुरक्षा में योगदान करेंगे। इस तरह हम देश के नागरिक से देश के सेवक तथा सेवक से राष्ट्र के रक्षक की भूमिका निभा सकते हैं। यदि जीवन केवल स्वार्थ-पुर्ती में बिता दिया गया तो ना ही कभी स्वयं का स्वार्थ पुरा होगा और ना ही समाज व देश कि रक्षा हो सकेगी।
राष्ट्रसेवा में हमारा आंशिक अनुदान भी बेहद सकारात्मक रूख अपना सकता हैं। राष्ट्रसेवा में त्वरित परिणाम के अवसर बेहद कम हो सकते हैं किंतु हमारा आज किया गया योगदान आने वाले कल में राष्ट्र को समर्पित होना निश्चित हैं। परिवारिक सेवा व्यर्थ हो सकती हैं किंतु निःस्वार्थ राष्ट्रसेवा किसी भी रूप से व्यर्थ नहीं जाती।
मनुष्य जीवन कि सफलता पूर्णतया इस कसौटी पर ही आधारित हैं कि एक मनुष्य अपने जीवन में कितने परोपकार करता हैं। एक परोपकारी जिवन युँ तो जनकल्याण में अपनी भूमिका निभाता ही हैं साथ ही कइ लोगों के लिये प्रेरणा दायक भी बन जाता हैं। एसा जिवन ही वास्तविक मनुष्य जीवन हैं, एसा जिवन ही सर्वश्रेष्ठ जीवन हैं।
जिम्मेदारियों का निर्वाह
मानवीय जीवन अनेकों जिम्मेदारियों से बंधा हुवा जीवन हैं। बचपन से ही हमें अपनी जिम्मेदारियों से परिचित करवाने कि शुरूवात होती हैं व वृद्धा अवस्था तक हमें कइ जिम्मेदारियों का निर्वाह करना पड़ता हैं। जिस तरह हमें परिवार की कइ जिम्मेदारियाँ उठाकर हम उनकी जरूरते पुरी करते हैं उसी तरह समाज व देश के प्रती भी हमारी जिम्मेदारियों के प्रती हम सजगता बरत कर उनके निर्माण व सुरक्षा में अपना योगदान अर्पित कर सकते हैं। यह इस लिये भी बेहद जरूरी हैं क्यूँ की हमारे परिवार कि खुशियाँ कइ प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से समाज व देश कि संपन्नत्ता पर भी आधारित हैं।
— यदि समाज में आक्रोश पनपेगा तो उसका असर हमारे परिवार पर भी अवश्य होना हैं।
— यदि देश बदहाली से झूंझेगा तो हमारे परिवार को भी किसी ना किसी रूप से उसके प्रभाव को झेलना ही पड़ेगा।
— यदि देश व समाज पर संकटों के बादल मंडराये तो परिवार कि सुरक्षा भी प्रभावित होनी ही हैं।
और यदि हम अपने प्रयासो से समाज व देश को सुरक्षित व संपन्न कर सकें तो हमारे परिवार के लिये भी खुशहाली के अवसर खुलते रहेंगे। इसके लिये हमारे अपने जीवन को हम जीम्मेदारीयों कि जटिलता से दुर नहीं ले जा सकते। एसा करना वास्तविक रूप में एक मूर्खता ही होगी। बगैर समाज व देश को सुरक्षित किये हमारा खुशहाल परिवार किसी स्वप्न से कम नहीं जो किसी भी क्षण बदहाली या असमाजिक घटना का शिकार हो सकता हैं।
जिम्मेदारियों के बदलते स्वरूप
जहाँ युवा अवस्था में हम किसी के प्रति जिम्मेदार होते हैं वहीं हमारा बालपन व हमारी वृद्धा-अवस्था किसी के लिये जिम्मेदारी बन जाती हैं। बचपन में जो हमारी जिम्मेदारियाँ उठाता हैं उसके वृद्धावस्था में हमें भी उनकी प्रति जिम्मेदार होना पड़ता हैं यहीं मनुष्य जिवन-चक्र हैं।
इसी तरह जिस समाज व देश को हमारे पूर्वजों ने सँजो कर हमें सौंपा उसे अपने जीवन काल में स्वयं के योगदान से संचित कर और अधिक समृद्ध कर आने वाली अगली पीढी को सौंपना हमारा ही उत्तरदायित्व हैं। हमारी अगली पीढी को हमें उन सारे विषयों पर जागृत करते रहना होगा जिसमें राष्ट्र कल्याण व सुरक्षा पूर्णतया सुनिश्चित हो सकें। हम हमारी पीढी को निजी संपत्तियों कि कितनी भी विरासत भले ही छोड दे किंतु यदि एक समृद्ध व सुरक्षित राष्ट्र देने में असफल हो जाते हैं तो हमारे द्वारा कि गई सारी तपस्या व परिश्रम व्यर्थ ही चला जायेगा। इस तरह तो हमारे द्वारा अपनी पुश्तों के लिए छोड़ी गई आशीर्वाद रूपी धरोहर उनके लिए अभिषाप बन सकती हैं क्योंकि उसका लाभ तो भ्रष्ट साशक ही उठाएंगे।
राष्ट्र का निर्माण-व-सुरक्षा कल जहाँ पूर्वजों का उत्तरदायित्व था व जिसे उन्होंने बलिदान हो कर भी निभाया, वो आज हमारी धरोहर हैं व आने वाले कल में हमारी अगली पीढी की होनी हैं। फिर क्यूँ ना हम अपने उत्तराधिकारी को कुछ इस तरह जागृत व सतर्क करें कि भविष्य में वे अपने राष्ट्र कि सुरक्षा का दायित्व भली-भांति उठा सकें।
जागरूकता से सुरक्षा
इतिहास गवाह हैं कि हमारी मातृभूमि को मुक्त कराने हेतु कितने हि विरों ने अपने प्राणों कि आहुति दी, कितनी ही माताओं ने अपना सर्वस्व लुटा दिया व कितने ही बच्चों ने अपना बचपन जला दिया तब कहीं जा कर हम आज स्वतंत्रा के सुरज को सरलता से देख पा रहे हैं। खुली हवा में भले ही आज हम साँस ले रहे हैं लेकिन क्या हम अपना रक्त-रंजित इतिहास भुला सकते हैं! कदापि नहीं और यदि भुलाया तो ना केवल यह हमारी मूर्खता होगी बल्कि यह फिर एक दासित्व स्वीकारने हेतु अत्याचारीयों को खुला आमंत्रण होगा।
राष्ट्रभक्ति की आसान राह
आज हम भारतीयों में कइ एसे हैं जो धर्म व देशभक्ति के प्रती सम्मानीय भाव रखते तो हैं किंतु अपनी दिनचर्या व कार्यशैली में अपनाते नहीं या फिर इसके लिए ‘कैसे योगदान करे’ इस पर मार्गदर्शन मिल नहीं पाता।
यदि हम गुलामी-काल से आज़ादी तक की देशभक्ति कि चर्चा करें तो उस काल में इसके लिये समझदारी के साथ एक बड़ा साहस भी अनिवार्य था। उस दौरान देश पर मर मिटने वालों को स्वयं का घर परिवार त्याग कर राष्ट्र हेतु आहुति के लिये हर वक्त तैयार रहना पड़ता था। देशभक्ति तो छोडो, स्वयं की धर्मभक्ति बचाने के लिये भी बलिदान हो जाना पढता था। “वंदेमातरम्” कहने मात्र पर भी लाठी खा कर घायल या गोली खा कर शहीद होना पडजाता था। इस तरह के माहोल में भी एसे… लाखों-लाखोंं सपुत जन्मे जिन्होने अपने धर्म व राष्ट्र की स्वाधीनता को प्राणों से भी बढ़कर माना व आखिरी साँस तक मातृभूमि की रक्षा की।
एसी विषम परिस्थितियों में भी यदि हमारे भारत के विर सपूतों ने अपने राष्ट्रप्रेम व स्वयं के स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं किया तो हमें उनके त्याग व तपस्या का मुल्य पहचानना ही होगा। आज पुर्ण रूप से स्वतंत्र देश में जब लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी हैं एसे समय में राष्ट्रभक्ति की मात्र भावना भी एक बड़ा हथिया बन सकती हैं। आज हमें अपने विचार रखने व अपने तरीकों से जीने कि खुली छुट हैं किंतु हम अपनी स्वतंत्रता का उपयोग किस प्रकार करते हैं यह पूर्णतः स्वयं को मिले ज्ञान व संस्कारों पर आधारित हमारी वैचारिक-शक्ति भूमिका नीभाती हैं।
वास्तविक में आज राष्ट्रभक्ति पहले कि अपेक्षा कइ माईनो मे सरलता से निभाई जा सकती हैं। किंतु मनोरंजन में डूबी युवा पीढ़ी इसे समझने में काफी हद तक विफल नजर आती हैं इसका मुख्य कारण हमारी प्रमाणपत्र वाली शिक्षा प्रणाली जो विद्यार्थियों को निजी स्वार्थ हेतु कमाई कि मशीने तो बना सकती हैं किंतु इनमे से प्रताप, शिवाजी, संभाजी व भगत सिंह जैसे योद्धाओं को अपना मार्ग-दर्शक बना कर राष्ट्र-रक्षक बन सकें ऐसे क्रांतिकारी नहीं बना सकती।
विद्यार्थी जिवन के पहले के दस वर्ष उनके आचरण निर्माण पर ध्यान देने हेतु अति महत्वपूर्ण हैं। यदि इस काल में विद्यार्थियों में चरित्र निर्माण सुनिश्चित संभव कर दिया जाये तो उनका शेष जीवन प्रभावित हो पायेगा।
स्वयं के आचरण में अपनाया आसान सा बदलाव राष्ट्रभक्ति में बड़ा योगदान निभा सकता हैं। हमें एसे राष्ट्रव्यापी व राष्ट्ररक्षक आचरण का पालन करना बेहद आवश्यक हैं।
अपनाया जाने वाला आचरण
— स्वदेशी उत्पाद को प्राथमीकता
— राजनेताओं पर पैनी नजर
— मिडियाई खबरों पर स्वयं का आकलन
— धर्मज्ञान निरंतर ध्यानरत
— धर्मरक्षा के लिये तत्पर
— धर्म व राष्ट्रविरोधीयों से सतर्क
— अंधश्रद्धा का त्याग
— भक्ति में परिपक्वता
— प्रत्येक जातीयों का सम्मान
— जातिवाद के खात्मे पर बल
— अध्यात्म का ज्ञान
— राष्ट्रहित व धर्मपरायणी दान
— असहायो कि सहायता
— दुर्बल की रक्षा
— तथा उपरोक्त आचरण को अपनाने वाले मित्रों का मनःपुर्वक सम्मान व उनको समर्थन
यदि स्वतंत्र भारत का भारतीय स्वतंत्रता के लिये दि गई बलीदानीयों को भुला कर मात्र पारिवारिक बंधनों को नीभाते हुए भोग-विलास में डुबा रहेगा तो वह कभी अपनी स्वतंत्रता को संभाल नहीं सकेगा व स्वयं के साथ-साथ देश को गर्क कि और ढकेलने का कारण सिद्ध होगा।
राष्ट्र हमारा हैं अतः राष्ट्र की रक्षा का दायित्व भी हमारा ही हैं। हम हमारी जागरूकता से ही सचेत व सतर्क रह कर राष्ट्र की रक्षा हेतु समर्थ रह सकते हैं जिससे हमारी आने वाली पीढ़िया भी हम पर गर्व कर सके। ठीक उसी तरह जिस तरह आज हम अपने पूर्वजो पर करते हैं।
कैसे बनेंगे समर्थ?
किसी के मन में यह विचार उठ सकता हैं कि वह अकेले राष्ट्र का रक्षक कैसे बन सकता हैं, इसके लिए क्या वह समर्थ हैं! इस प्रश्न के प्रतिउत्तर में यदि एक प्रश्न यह पूछ लिया जाय कि क्या एक अकेला व्यक्ति पुरे राष्ट्र के लिए घातक बन सकता हैं! ध्यान रहे, इस प्रश्न के उत्तर में ही पहले प्रश्न का उत्तर बन जाता हैं।
हमे यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि यदि कोई अकेले राष्ट्र का रक्षक नहीं बन सकता तो कोई अकेले राष्ट्र को क्षति भी कैसे पहुंचा सकता हैं और यदि कोई अकेले राष्ट्र को क्षति पहुंचाने में सक्षम हैं तो फिर हम अकेले राष्ट्र के रक्षक क्यों नहीं बन सकते?
आज जितने भी राष्ट्रवादी संगठन हमें नजर आते हैं उनकी निव किसी ना किसी अकेले व्यक्ति के विचारों से ही संभव हो सकी। अतः हमारा अकेलापन हमारे राष्ट्रहित के ध्येय में कहीं भी समस्या नहीं माना जा सकता। राष्ट्र के लिए हमारे सही विचार ही हमे राष्ट्र रक्षक बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आवश्यकता मात्र इतनी हैं कि राष्ट्र से जुड़े प्रत्येक विषयों पर हमारे कुछ ना कुछ विचार अवश्य हो व हमारा निरंतर इन पर चिंतन चलता रहे। निरंतर चिंतनो से विचारों का मंथन होता हैं व वे शुद्धिकरण को प्राप्त हो जाते है।