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धर्म के प्रति जागरूकता

Posted on May 20, 2017May 13, 2023 By admin No Comments on धर्म के प्रति जागरूकता

धर्म की समझ

यदि मात्र कुछ शब्दों में ही व्यवहारिक तौर पर धर्म को समझना हैं तो कहा जा सकता हैं कि — धर्म अर्थात वह धारणा जिससे सृष्टि के कण-कण का कल्याण सुनिश्चित हो। धर्म अर्थात, स्वयं से जुड़े कण-कण की सेवा। सेवा, परिजनों की, समाज की, धरती की, पशुओं कि यहाँ तक की प्रकृति के प्रत्येक सुक्ष्म से सुक्ष्म कण की जिस पर संपूर्ण सृष्टि आधारित हैं व जो जिवन के निर्वाह में सहयोगी हो। जीस तरह सृष्टि हमारा पालन-पोषण करती हैं धर्म भी हमें प्रकृति के पालन-पोषण की समझ प्रदान करता हैं। मानव जिवन के लिये यह समन्वय बेहद जरूरी हैं। जिसे भी इस समन्वय का ज्ञान हैं वहीं धर्म-वान हैं और जिसे नहीं हैं वह अज्ञानी हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस समन्वय को ना समझ कर विरोध पर उतर आते हैं, ऐसे लोग धर्म विरोधी हैं। इनका जाने-अनजाने में धर्म का विरोध सृष्टि कल्याण के लिये अवरोधक बन जाता हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो विरोध के साथ इसे मिटाने पर उतर आते हैं वे पूर्ण रूप से अधर्मी हैं जो सृष्टि विनाश के मार्ग पर चल पड़ते हैं। अधर्मीयों व धर्मविरोधीयों की एसी मानसिकता का विनाश सृष्टि कल्याण के लिये अति आवश्यक हैं और यह भी एक धर्म हैं।

हम अपनी माता के कोख से ही धर्म से जुड़ जाते हैं और मरणो प्रांत भी धर्म से बंधे हुए होते हैं। धर्म मानव जीवन के कर्म की दिशा निर्धारित करता हैं। धर्म इंसान को “इंसान” बनने के लिये बाधित करता हैं। धर्म का ज्ञान मानव को मानव से जोड़ता हैं। धर्म से जुड़ कर हम अपने सारे द्वेष-व-मतभेदों से मुक्ति पा सकते हैं। जो मानव के प्रती मानव में द्वेष पैदा करे वह धर्म कि व्याख्या से ही परे हो जाता हैं। किसी भी रूप में मानवता कि हत्या को धर्म नहीं ठहराया जा सकता। जहाँ मानवता दम तोड़ने लगे वहीं से धर्म के पतन की शुरूवात हो जाती हैं।

धर्म-विरोधी ताक़तें हमारी कई धार्मिक प्रथाओं को अंधविश्वासी बता कर भ्रम पैदा करने के षडयंत्रों में निरंतर लगे हुए हैं जैसे मुर्ति पुजा को अनावश्यक बताना, गो-सेवा को निरर्थक बताना, यह बताना की लोग डर कर मंदिर जाते हैं, साधु-संतों को चरित्रहीन बताना आदि। जब तक स्वयं के धर्म का महत्व हम समझ नहीं लेते तब तक हमारे लिये ऐसे षडयंत्र भ्रम वाली स्थितियाँ पैदा करते हैं और यहीं धर्म विरोधियों का लक्ष्य भी होता हैं कि हम अपने धर्म के प्रति भ्रमीत हो। क्यूँ की एक भ्रमीत मन अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सकता। हम केवल तब तक सुरक्षित हैं जब तक कि हम अपने धर्म को सुरक्षित रख सकेंगे इसलिए हमें जरूरी हैं की हम अपने धर्म को पहचाने।

धर्म सिर्फ एक हैं

इस धरती पर धर्म सिर्फ एक हैं जिसका अस्तित्व मानवता-जन्म के साथ हुवा व जिसका अंत भी मानवता के अंत के साथ ही होगा। धर्म पर किसी का अधिकार नहीं और ना ही धर्म को कोई बाधित कर सकता हैं। मनुष्य केवल प्रथायें व पंथ का निर्माता हो सकता हैं किंतु धर्म का निर्माता एक मात्र परमेश्वर ही हैं।

भारतीय मान्यताओं के अनुसार मानवता की शुरूवात भारत भूमि से हुई हैं जिसका प्रमाण दस हजार वर्षों से भी ज्यादा पुराना भारत का इतिहास हैं। विश्व के किसी देश का इतिहास शायद ही इतना प्राचीन हो। हम भरतवंशीयों कि पहचान हमारे सनातन धर्म से जुड़ी हुई हैं। समय-समय पर परमेश्वर ने कई स्वरूपों में धरती पर प्रकट हो मानव हीत में धर्म कि रक्षा करते हुवे धर्म का मार्ग बताया हैं। प्रसिद्ध ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता स्वयं परमेश्वर के श्रीमुख से कथित धर्म का एसा ही एक दर्पण हैं जिससे हम धर्म का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

धर्म का एकमात्र उद्देश्य मानव कल्याण हैं। मानवता तब तक सुरक्षित रह सकती हैं जब तक धर्म पुरी तरह से स्थापित रहे उसी तरह धर्म भी तब तक सुरक्षित रह सकता हैं जब तक मानवता का आदर हो। इसीलिये श्रीकृष्ण ने गीता में कहाँ हैं…

“धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यः मानो धर्मो हतोवाधीत् ॥”

अर्थात – धर्म उसका नाश करता है जो धर्म का नाश करता है । धर्म उसका रक्षण करता है जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है । अतः धर्म का नाश नहीं करना चाहिए | ध्यान रहे धर्म का नाश करनेवाले का नाश, अवश्यंभावी है।

इस धरती पर मानवता कायम रखने के लिये धर्म का सुरक्षित रहना आवश्यक हैं। जब तक हम अपने धर्म के प्रती जागरूक नहीं होंगे हम अपने धर्म कि रक्षा के लिये सतर्क नहीं हो सकते।

धार्मिक ज्ञान ना केवल हमारी रक्षा करता हैं बल्कि हमारे सम्पूर्ण जीवन के कइ कठीन-से-कठीन परिस्थितीयों में मार्गदर्शक भी बनता हैं। जिसे धर्म का ज्ञान होता हैं वह विषम परिस्थितीयों में विचलित नहीं होता। धर्मवान व्यक्ति कभी असहाय या अकेला नहीं होता धर्म सदैव उसके साथ होता हैं। धर्म ज्ञान से ना ही स्वयं की शक्ती पर अभिमान होता हैं और ना ही निर्बलता का डर। धर्म हर परिस्थितीयों में हमें संतुलित व्यवहार सिखाता हैं।

धर्म हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक के जिवन को सही दिशा प्रदान कर जिवन को भक्ति और शक्ति से परिपूर्ण करता हैं। धर्मज्ञान से हमें इश्वर भक्ती, पारिवारिक व्यवहार, समाज कल्याण सहित प्रकृति व मातृभूमि केे महत्व को सरलता से समझने में सहायक बनता हैं।

धर्म-ज्ञान में हमें सर्व-संपन्न तो अवश्य करता हैं लेकिन इसके लिये हमें धर्म को गहराई से समझना भी जरूरी हैं। उदाहरणत: भगवद्गीता यूँ तो पढ़ लेना आसान हैं किंतु इनमें समावेश श्लोक जितनी ही बार हम पढेंगे हर बार वे हमारे विचारों को एक नई चेतना प्रदान करते हैं। धर्मउपदेशों पर निरंतर चिंतन हमें इनकी गहराईयों में ले जाता हैं। धार्मिक उपदेशों की ऐसी विशेषता को कइ लोग जो चिंतनहीन हैं या परिश्रम से दुर भागते हैं वे इन्हे समझने में असमर्थ होने के कारण इसे अप्रभावित बताने लगजाते हैं।

इश्वर भक्ति

इश्वर भक्ति हमारे ज्ञान का प्रथम द्वार हैं। शिशुकाल से ही हमारे परिजन हमें इश्वर सम्मुख हाथ जोड़ना सिखाते हैं। इश्वर के प्रती हमारी उत्सुकता से ही हम धर्म ज्ञान की और झुकते हैं। महादेव कौन हैं, गणेश जी का रूप एसा क्यूँ हैं, राम जी ने रावणवध क्यूँ किया, हनुमान ने लंका कैसे जलायी और कान्हा माखन क्यूँ चुराते थे…जैसे उठने वाले हर प्रश्न हमें धर्म की और आकर्षित करते हैं। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता जाता हैं भक्ति भी बढ़ती जाती हैं व हम धार्मिकता की और अग्रसर होते चले जाते हैं।

सनातन धर्म में भक्ति के कइ आयाम हैं लेकिन कहीँ भी किसी भी तरह की अनीवार्यता का कोई जिक्र नहीं। अर्थात जहाँ मदींर मे पुजा करना भी भक्ति हैं वहीं घर बैठकर प्रभु जप करने वाला भी भक्त हैं। कोई हार-फुल, श्रीफल व प्रसाद चढाकर भक्ति जाहिर करता हैं तो कोई मात्र हाथ जोड़ कर ही अपने प्रभु को मना लेता हैं। धर्मानुसार प्रभु के लिये भक्ति की भावनाओ का शुद्ध होना जरूरी हैं।

भक्तीधाम:

हमारे धर्म विरोधी सदैव हमें यह समझाते मिलते हैं की मंदिर लोग डर कर जाते हैं, मुर्ति पुजा व्यर्थ हैं। जबकी हकीकत में वे लोगों की श्रद्धा को भ्रमीत कर मंदिर व भगवान के प्रती अविश्वास पैदा करने के षडयंत्र को सफल बनाने मे निरंतर लगे हुए हैं। आज धर्मज्ञान से दुर हो चुकी पीढी इन साजिशों का शिकार भी बनती जा रहीं। यह ठिक उसी तरह हैं कि एक जुठ को सैकडों बार और तरह-तरह से दौहराया जाये तो वह भी सच लगने लग जाता हैं। इसी तरह मुर्तिपुजा के विरोध में किताबों अखबारों मे लेख छपवा कर, प्रायोजित कार्यक्रमो द्वारा व अब तो एसे विषयों को मुद्दा बना कर फिल्में भी बनवाई जाने लगी हैं। अज्ञान युवा पीढी भी आसानी से इनके झाँसों मे फंसती जा रहीं क्यों कि उनके लिये “भगवान हैं” इसकी खोज पर परिश्रम करने के बजाय भगवान नहीं हैं यह मान लेना बेहद आसान हैं जो कि धर्म-विरूद्ध षडयंत्र का हिस्सा हैं। लेकिन यदी हमें मंदिर व मुर्तिपुजा के महत्व का ज्ञान रहे तो हम इन षडयंत्रो से बच कर धर्म रक्षा कर सकते हैं।

हमारी संस्कृती हमें जगह-जगह मंदिर स्थल हो इसकी प्रेरणा देतीं हैं। मंदिर हमारे चरित्र निर्माण में सबसे पहली भूमिका निभाता हैं। यह वह स्थान हैं जहाँ प्रवेश करने से पहले ही प्रत्येक दर्शनार्थी के मन में दो बाते अवश्य उठती हैं पहली – मंदिर प्रांगण में स्वच्छता रखनी हैं और दुसरी कि वह स्वयं को शुद्ध कर मंदिर में जाये फिर भले ही वह कितने ही निम्न स्तरीय में क्यों ना कार्यरत हो। यह दो बाते व्यक्ती कि समझ मात्र से व्यक्ती में व्यक्तित्व का निर्माण आरंभ होता हैं। तत्पश्चात् भक्त की भक्ति अनुसार ज्ञान का संचय होने लगता हैं। मंदिर प्रांगण हर तरह से भक्तो के सकारात्मक उर्जा से भरा हुवा होता हैं।

उसी तरह प्रतीमा पुजा भी भक्ति का प्रथम द्वार हैं। अपने इष्टदेव की मनमुरत को प्रतीमा स्वरूप देख कर भक्त में उसके भक्तिभाव सहज ही उभर आते हैं। मुर्तिपुजा भक्त के इश्वर कि खोज मे भटकते मन को एकाग्र करने का कारगर उपाय हैं। यह भक्ति द्वार शिशु से लेकर वृद्ध तक को भक्ति के लिये आमंत्रित करता हैं। प्रतीमा की मनमोहक छवियां भक्त को भक्तिज्ञान की और प्रेरित करती हैं। भक्त कि जिज्ञासा उसे धार्मिक ज्ञान की दिशा में ले जाती हैं। इस तरह भक्त कइ दुर विचारों से स्वयं को मुक्त रख सकता हैं।

जैसे-जैसे भक्त की भक्ति बढ़ती जाती हैं भगवान के प्रती भक्त का ज्ञान भी बढ़ता हैं। व्यक्ती का चरित्र निखरता हैं। दान-धर्म के महत्व भक्त के स्वभाव में स्वार्थ का नाश करते हैं। मंदिर कि गोशाला में कि घर गौ-सेवा हमें प्रकृति से जोड़ती हैं व प्रसाद रूपी ग्रहण सभी के साथ समरूपी सेवन सिखाता हैं। यह एसे ज्ञान हैं जो हमें मंदिर प्रांगण में सरलता से मिलते हैं। यह एसे ज्ञान हैं जो आज हमारे आधुनिक घरों से ओझल होते जा रहे हैं किंतु यह भी सत्य हैं कि ऐसे ज्ञान ही हैं जो हमें समृद्ध समाज निर्माण की दिशा की और ले जा सकते हैं।

एक भक्त के मन में जो सबसे पहला प्रश्न उठता हैं कि भगवान कहाँ हैं तो उसका सबसे सरल जवाब यही हैं कि भगवान मंदिर में हैं और यह पुरी तरह सत्य भी हैं। लेकिन इस सत्य को समझने के लिये जिस ज्ञान कि शुरूवात होती हैं उसी का प्रथम चरण मुर्तिपुजा हैं।

धर्म-विरोधी भी इस तत्थ को जानते हैं इसीलिये वे मुर्तिपुजा कि प्रथा का पतन कर व्यक्ती को धर्म जे जोड़ने की जो पहली कडी हैं उसे ही तोडना चाहते हैं ताकि लोग मंदिर जाना एक मिथ्या मान ले। यह लोगों को धर्म से दुर ले जाने के लिये धर्म विरोधीयों का बेहद कारगर हथियार बन चुका हैं।

प्रभुदर्शन:

मुर्तिपुजा से भक्ति की मात्र शुरूवात होती हैं किंतु भक्त की श्रद्धा व प्रभु मिलन की व्याकुलता प्रभु के दर्शन करवाती हैं। जब भक्त पूर्णतः भक्ति सागर मे डुब जाता हैं तो उसे हर समय मात्र अपने प्रभु का ही स्मरण रहता हैं। भक्त की भक्ति जब चरम पर पहुँचती हैं तो भक्त कि मनःस्थिति उस अवस्था में होती हैं जब भक्त अपने चारो और हर नजर, हर वस्तु में यहाँ तक की कण-कण में प्रभु की उपस्थीती का आभास करता हैं। उसे मंदिर जाना भी निरर्थक महसुस होने लगता हैं क्यूँ की भक्त को तो अपने हर तरफ प्रभु की उपस्थीती महसुस होने लग जाती हैं। एसी अवस्था को पार कर ही वह अवस्था भी आती हैं जब भक्त को साक्षात प्रभु दर्शन देने लगते हैं वे भक्त से बात भी करते हैं और भक्त के सवालों के जवाब भी देते हैं। यहीं वो अवस्था हैं जहाँ एक भक्त भी कहता मिलता हैं कि मैं मंदिर क्यूँ जाऊ मुझे तो हर कहीँ भगवान नजर आते हैं, मैं पत्थर कि पूजा क्यों करु जब मेरे सामने ही साक्षात भगवान हैं।

हमारे इतिहास व पुराणों मे भी एसे कइ भक्तो के उल्लेख मिलते हैं जिन्होने साक्षात भगवन के दर्शन किये हैं। ऐसे कई भक्तो का वर्णन भी मिलता हैं जिन्होंने इस अवस्था में मंत्रमुग्ध हो कर स्वयं के लिए मूर्ती पूजा को निरर्थक बता दिया था। लेकिन एसे भक्तों को आधार बनाकर हमारे धर्म विरोधी अर्धसत्य का प्रचार करते हुए मूर्ति पूजा प्रचलन को ही मिथ्या साबित करने में जुट जाते हैं। हम भारतीयों को ऐसे षड्यंत्रों से अवगत होना आवश्यक हैं क्योंकि वह मुर्तिपूजा ही होती जो साधारण जनमानस को भक्ती के लिए सर्वप्रथम प्रेरित करती हैं। कल्पना करों यदि मूर्तिपूजा पर से लोगों ने विश्वास उठा लिया तो ना भक्त रहेंगे ना भगवान और ना ही धर्म बच पायेगा।

ऋषि ससंस्कृती

हमारी संस्कृती में साधु-संतों, ऋषि-मुनियोंं का एक विशेष महत्व हैं। ईश्वर की महीमा हमें भक्ति की और आकर्षित अवश्य करती हैं लेकिन बगैर ज्ञान वाली भक्ति मात्र अल्पकालीन ही हैं। हम इश्वर भक्ति में स्वयं को चाहे कितना भी रम ले लेकिन अज्ञान रूपी भक्ति उद्धार नहीं पाती। एसे भक्त को अधर्मी सरलता से भटका सकते हैं। जीस भक्ति का आधार ज्ञान ना बने, भक्ति अंधविश्वास के रूप में होती हैं। ज्ञान भक्त की भक्ति को शक्ती में बदल देता हैं। ज्ञान से परिपूर्ण भक्ति लिये भक्त को अपनी भक्ति से कोई भ्रमीत नहीं कर सकता। ऋषि-मुनी हमारे भक्ति ज्ञान का श्रोत बनते हैं। भक्तो के लिये समय-समय पर साधु-संतों द्वारा लगाया गया सत्संग भक्तिज्ञान के लिये एक अनोखा अवसर होता हैं। एक सत्संग महीने भर मंदिर जाने से भी अधिक लाभप्रद हो सकता हैं। सत्संग पहुच कर हम अपनी भक्ति का सही आकलन कर पाते हैं। जब भक्त नित्य पुजाक्रम के जरीये प्रभु ध्यान में मग्न हो जाता हैं, यह भक्ति प्रभु के विषय में अधिक से अधिक जानने की दिशा में निरंतर अग्रसीत होती रहती हैं। भक्त का मन भक्ति-रहस्य को जानने के लिये विचलित हो उठता हैं। ऐसी स्थिति में यदि भक्त गुरू के शरणागत हो जाए तो गुरूप्रवचन से भक्त भक्ति-रहस्य को जान सकता हैं। वह भक्तिज्ञान जो वास्तविक हैं व हमारे मन को इस नश्वर संसार के संसारीक व्यवहार-छल-कपट से परे हट कर दान, धर्म, त्याग-तपस्या का मार्ग दिखाता हैं।

हमारे गुरूजन हमारे लिये पूज्य होते हैं। उनकी पुजा से ही उनके दिये ज्ञान में श्रद्धा पनपती हैं तथा हम उस ज्ञान को वास्तविकता में उतारने के प्रती अग्रसर होते हैं। यह हमारी जिम्मेदारी हैं की हमारे गुरूजनों का आदर-व-सम्मान सदा बना रहे। अगर आजतक हमारी संस्कृती जीवीत हैं तो उसका एकमात्र श्रेय हमारे इन गुरुजनों को ही जाता हैं। यहीं कारण हैं की हमारे साधु-संत हमेंशा धर्म विरोधीयों के निशानो पर रहते हैं। उनका लक्ष्य होता हैं की लोगों का विश्वास साधु-संतों से उठाया जाए जिसके लिये उन पर आरोप मढे़ जाते हैं व उन्हें चरित्र हीन साबित करने के लिये तरह-तरह के षडयंत्र रचे जाते हैं। वे जानते हैं की जब तक संत परंपरा जीवित हैं, हमारी संस्कृति मिटाने के उनके सारे प्रयास विफल होते रहेंगे। साधु-संतों के चरीत्रों पर दोष लगाने के निरंतर षडयंत्रों से आज हम भली-भाँति परिचित हैं। जब संतों कि प्रसिद्धी ज्यादा फैलने लगती हैं तो धर्म-विरोधी संतों के विरूद्ध षडयंत्र पर उतर आते हैं। आज तक जितने भी सुप्रसिद्ध संतों पर जो दोष मढे़ गये उनमें से अधिकतर संत न्यायलय में दोष मुक्त हुए हैं। किंतु दोष मढ़ते समय धर्म-विरोधी दुष्प्रचार के लिये प्रचार-तंत्र का जमकर दुरूपयोग करते हैं जिससे गुरूजनों के अनुयायी भ्रमीत हो संतो के प्रति संदेहास्पद रवैया अपनाने लग जाए व उनसे दुर हो जाए। तत्पश्चात संतो को स्वयं को दोषमुक्त सिद्ध करने के लिए एक लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता हैं। जो प्रचारतंत्र संतो पर मढ़े आरोपों पर लामबंद हो दिन-रात दुष्प्रचार में जुटा रहता हैं वही लंबे संघर्ष के बाद संतो के दोषमुक्त होने पर पुरी तरह खामोश नजर आता हैं।

जहाँ संत परम्परा को मिटाने के लिये धर्म विरोधीयों ने पुरी ताकत लगा रखी हैं कुछ दोष नई पीढी को तैयार करने वाले उन माता-पिता का भी हैं जिन्होने ना ही स्वयं कभी सत्संग को समझा और ना ही कभी अपनी संतानों को समझाया। आज कि युवा पीढी का एक बड़ा हिस्सा संत परम्परा से कट चुका हैं। वह परम्परा जो हमारी पीढी में आदर्श व चरित्र का निर्माण कर सकती हैं, हम स्वयं इसे कुचलने में लग गये हैं। इसके परिणाम भी तरह-तरह के भयावह दुष्कर्मों के स्वरूप में समाज को भुगतने पड़ रहे हैं। इस स्थिति के लिए एसे माता-पिता प्रथम दोषी हैं।

गुरू चरित्र व गुरू ज्ञान

हमारी संस्कृती ने ज्ञान को सदैव सर्वोपरि माना हैं। जिनके पास ज्ञान का भंडार था उन्हें शिर्ष स्थान समाज ने दिया। उसी तरह ज्ञान देने वाले गुरू को भी पूज्यनीय माना। जो ज्ञान देता हैं वह गुरू हैं और गुरूपुजा भी इसीलिये होती हैं क्यूँ की गुरू के पास ज्ञान हैं। इस गुरू-शिष्य के रिश्ते में गुरू के चरित्र की कोई भूमिका नहीं होती। एक चरित्रहीन व्यक्ती भी अपना स्वस्थ ज्ञान किसी को दे कर गुरू के पद पर आसीन हो जाता हैं, वह उस शिष्य के लिये सदैव पूज्यनीय ही रहेगा। यदि गुरू चरित्रहीन हैं या किसी भी पाप का भागी हैं तो उसका फल तो गुरू को भुगतना ही हैं। हमारे पुराणों में एसे अनेक गुरूजनों के उल्लेख मिलते हैं जो चरित्रहीन अथवा अधर्म के पात्र होते हुए भी महारथियों ने शिष्य बनकर उनसे ज्ञान अर्जीत किया व उन्हे अपना गुरू स्वीकार किया।

रामायण में एसे ही एक प्रसंग में प्रभु राम ने भ्राता लक्ष्मण से मृत्यु शय्या पर पडे रावण को अपना गुरू स्वीकार कर ज्ञान प्राप्त करने को कहा। लक्ष्मण ने भी बडे़ आदर से रावण के शरणागत हो ज्ञान प्राप्त किया। यह जानते हुए कि रावण एक चरित्रहीन व्यक्ती था और उसके पापों के भुगतान हेतु ही उन्हें युद्ध का सामना करना पड़ा। रामायण के इस प्रकरण को ध्यान में रखते हुए यदी आज हम अपने गुरूजनों के विरूद्ध चल रहे दुष्प्रचारों का आकलन करें तो हमारे समाज की एक बड़ी ही शर्मनाक स्थिती उभरकर आती हैं। वह स्थिति जिसमें दुष्प्रचारों के जाल में फँसकर अपनों में से ही कितने लोग संतों के विरूद्ध उतर आते हैं। घौर करे, संतो के विरूद्ध जितने भी दुष्प्रचार किये जाते हैं वे गुरूजनों के चरित्र मात्र को ले कर किये जाते हैं ना की गुरू के ज्ञान के विषय में होते होते हैं। ऐसा इसीलिये क्यूँ की धर्म-विरोधी ज्ञान के आधार पर संतों से उलझने की चेष्टा कर ही नहीं सकते।

अगर आज हम संतों के प्रती षडयंत्र मात्र से ही उनका आदर भुला बैठते हैं तो यह हमारे ही समाज के लोगों की संतों-प्रथा के प्रती अज्ञानता का जिता जागता सबूत हैं। संतों का आदर-सम्मान हर अवस्था में बना रहना चाहिये फिर भले ही संत चरित्रहीन क्यों ना हो। हमें चाहिये की हम हमारे समाज को उस दिशा में ले जाये की यदि किसी संत पर लगा चरित्रहीनता का दाग वास्तविक भी हो तो भी उस संत के ज्ञान का आदर सदैव बना रहे।

गो-माता

हमारे वेदों ने गाय की गुणवत्ता बताते हुए गाय को माता का स्वरूप बताया हैं व गो-सेवा को सभी तरह के पुण्य कर्मो में उत्तम बताया हैं। गाय प्रकृति से मिली व प्रकृति के लिये एक अमूल्य वरदान हैं। गाय की महत्त्वता इस तथ्य से समझी जा सकती हैं कि हमारा स्वस्थ माना जाने वाला किसी भी प्रकार का दीर्घकालिक पर्यावरण बगैर गाय के संभव नहीं। एक गाय अपने संपूर्ण जीवन में सृष्टि को इतना कुछ दे जाती हैं जितना की सैकडों मानव जन्म भी नहीं दे पाते।

माता शब्द ही “ममता” से पुरा भरा हुवा हैं। एक एसी ममता जो कुछ-न-कुछ देने के लिये सदैव तत्पर रहती हैं और बदले में मांगती कुछ नहीं। मनुष्य को जन्म तो एक माँ कि कोख से लेता हैं किंतु उसके पालन में तीन माताओं का अनुदान होता हैं। गाय मनुष्य की दुसरी व मातृभूमि तीसरी माता के रूप में हमारे जिवन का निरंतर पौषण करती रहती हैं।

जो विद्यार्थी शिक्षा में कमजोर होते हैं उनके लिये एक कहावत बड़ी ही प्रचलित कि गई हैं – “गाय हमारी माता हैं, हमको कुछ नहीं आता हैं” जीसका अर्थ हैं की जो गाय को अपनी माता मानता हैं उसे दुसरा कुछ ज्ञान नहीं। इस कहावत ने हमारी गो-संस्कृती पर बड़ा ही अपघात किया हैं। वास्तविकता तो यह हैं कि जिसने यह जान लीया कि गाय हमारी माता क्यूँ हैं उसने सृष्टि के सबसे बडे़ व महत्वपूर्ण रहस्य को समझ लीया फिर वह बगैर किसी अन्य ज्ञान के भी ना केवल स्वयं का बल्कि समाज व संस्कृती का उद्धार कर सकता हैं, देश को समर्थवान बना सकता हैं।

गाय के विषय में सबसे पहला ज्ञान यह जानना जरूरी हैं कि भारतीय संस्कृती जीस गोवंश को सदीयों से पूजते व पालते आ रहे हैं उसका उल्लेख मात्र भारत कि शुद्ध देशी गोवंश से जुड़ा हैं ना कि किसी जर्सी या अंग्रेजी गाय से हैं। जर्सी गाय जो भारत के लिये मात्र एक आयातित पशु हैं जो दिखने में तो गाय हैं दुध भी ज्यादा दे सकती हैं किंतु गुणवत्ता में पुरी तरह विफल हैं।

भारतीय संस्कृती ने गाय को माता स्वरूप माना हैं और हमारी यह मान्यता किसी तरह के अंधविश्वास से पूर्णरूप से परे हैं। आधुनिक विज्ञान कि खोज ने भी भारतीय संस्कृती में प्राचीनकाल से मानी जा रही गाय व गो तत्व की प्रत्येक विशेषताओं को पुर्ण रूप से सिद्ध पाया। गाय को माता का रूप इसीलिये दिया गया हैं क्यूँ कि एक नवजात शिशु के लिये माँ के दुध के विकल्प में यदि सबसे बेहतर कोई विकल्प हो सकता हैं तो वह मात्र गाय का दुध हैं। यह भी माना जाता हैं कि माँ शब्द कि उत्पत्ति ही गाय के बछडे द्वारा अपनी माँ के लिये किये जाने वाले “म्मा” उद्घोष से हुई।

गाय अपने आप मे इतनी गुणवान हैं कि वह केवल अपनी उपस्थीती मात्र से आस-पास के वातावरण को शुद्ध कर रोग मुक्त कर देतीं हैं। जिन घरों में गाय पाली जाती हैं वहाँ बीमारियाँ नहीं पल पाती। यहीं कारण हैं कि पहले के मिट्टी-गोबर के घरों में रह कर गाय पलने वाले आज के पक्के मकानों में रहने वालों कि अपेक्षा कम बीमार पड़ते थे। गाय के गोबर व गोमूत्र में उपस्थित कीटनाशक शक्ती इतनी गुणकारी हैं कि वह न केवल कीटाणुओं से रक्षा करती हैं बल्कि जीवाणुओं के लिये वातावरण को अनुकूल बनातीं हैं। यहीं कारण हैं कि हम अपने किसी भी पूज्य कार्य का शुभारंभ गो-मुत्र के छिड़काव से करते हैं। आज आधुनिक विज्ञान ने इसी आधार पर साबुन व फिनाइल जैसे कइ उत्पादों का निर्माण गो तत्वों से किया हैं जिनकी आज भारतीय बजार सहित विदेशों से भी भारी मांग हैं।

गाय स्वभाव से ही शांत व संयमता का प्रतीक रहीं हैं। जहाँ हमें अन्य प्राणीयों के पालतु व जंगली प्रारूप मिलजाते हैं वहीं गाय के विषय में केवल पालने वाला प्रारूप ही मिलता हैं। जबसे मानवीय जीवन की शुरूवात हुई हैं गाय मानवीय जरूरतो कि पुरक रहीं हैं व गाय के गुणों से सृष्टि का कल्याण होता आ रहा हैं। गाय कि एक विशेषता यह भी हैं कि आने वाली आपदाओं का अनुमान इन्हे पहले ही हो जाता हैं जिसका संकेत वह अपने स्वभाव से देतीं हैं। धरती पर आने वाली कइ तरह की आपदा जैसे भुकंप, भुचाल, जीसके अनुमान आज के आधुनिक विज्ञान भी लगाने में पुरी सफलता नहीं पा सकें, कइ बार इनके संकेत गायों से मिले हैं। यह संकेत अनेक जगहो पर आये कइ भंयकर भूकंपो के पहले वहाँ पर उपस्थित गायों की घबराहट के रूप में सामने आया जिसमें गायों के झुंड में मची असामान्य अफरातफरी हो या कइ गायों का एक साथ शोर मचाना हो।

बैल कि अपार शक्ती का प्रयोग प्राचीन काल से किसान खेत जोतने, कुँए से पानी खिचने, हल चलाने व बोझ धोने जैसे कइ कार्यो में करते आ रहे हैं। आधुनिक खेती में भले ही बैलों का उपयोग घटा हो किंतु आज भी अधिकतर किसानों कि खेती बैलों के भरोसे ही होती हैं। खेती से जुड़े कार्यो में बैल किसान के कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले साथी हैं और किसान भी हर वार-त्योहारों पर गाय के साथ -साथ बैलों कि भी पुजा करते हैं।

गाय से जुड़ी ऐसी विशेषताएं जो मानवीय जिवन के लिये महत्वपूर्ण सिद्ध पायी गयी हैं…

— गाय का दुध मानव के लिये अमृत समान हैं, दही-छाछ पाचक क्षमता को बढ़ाते हैं और गाय का घी अन्य घी कि अपेक्षा कइ गुना ज्यादा लाभकारी हैं…
— गाय के घी से किये गये हवन से प्रचंड मात्रा में ऑक्सीजन निकलती हैं जो वातावरण को दोषमुक्त करती हैं…
— गाय का शरीर जिसे मात्र स्पर्श कर हाथ फेरने से कइ बीमारियों में लाभकारी पाया गया हैं…
— गाय का गोबर खेती के लिये सबसे उपयुक्त खाद हैं जो मिट्टी कि उपजाऊ क्षमता को बढ़ाता है, फसल कि पैदावार बढ़ाते हुए अनाजो कि पौष्टिकता बनाये रखता हैं व फसल को नुकसान पहुंचाने वाले जिंवजंतुओं से उनकी रक्षा करता हैं…
— गाँवों में भोजन पकाने हेतु गोबर के कंडे बडे़ सहायक होते हैं वहीं बायोगैस के जरिये भी गोबर के इस्तमाल से इर्धन प्राप्त होता हैं…
— गो-मुत्र में वातावरण को शुद्ध करने कि क्षमता के साथ ही इसका उपयोग कइ तरह कि औषधियों में भी किया जाता हैं, गो-मुत्र का अर्क ऐसी ही एक औषधी हैं जो केंसर जैसे रोग के उपचार में उपयोगी सिद्ध हुई हैं…

गाय कि एसी अनेकों अनगीनत विशेषताओं के कारण ही भारतीय समाज ने सृष्टि के लिये वरदान मान कर गाय कि पुजा की हैं। गाय अपने जीवन काल में मानव, मिट्टी, वायु व पर्यावरण को इस कद्र पौषीत करती हैं की सृष्टि का कण-कण जिवनमयी बन सकें। यह इस बात का प्रमाण भी हैं कि आदिकाल में भी हमारे ऋषि मुनियों द्वारा कि गई खोज कितनी ही सटीक व अंधविश्वास से परे थी। वास्तव में गाय कि प्रत्येक गुणवत्ता को सिमित शब्दों में बता पाना संभव नहीं और यदि इसे एक वाक्य में समझाना हैं तो यहीं कहाँ जा सकता हैं की “गाय से ही सृष्टि हैं, गाय नहीं तो सृष्टि नहीं”

गो-सेवा का महत्व

जहाँ गाय अपनी गुणवत्ता से पूज्य मानी गई हैं वहीं गाय कि सेवा करने वाले गोपालक भी भारतीय संस्कृती में बड़ा ही महत्व रखते हैं। गाय जो सृष्टि कि पालन हार हैं उसकी सेवा करने वाले गोपाल भी सृष्टि के लिये कल्याणकारी हैं। वह गोपाल जो दिन रात नि:स्वार्थ गऊ सेवा में लगा रहता हैं, गाय को चारा-पानी डालने से लेकर गाय के स्थान को साफ सुथरा करने तक के सभी कार्य गोपाल के जीवन पर बड़ा ही असर करते हैं। गाय को अपने जीवन का हिस्सा बनाने वाले गोपाल कई तरह कि गंभीर बीमारियों से दूर रहते हैं। गाय के निकट रहने से रोग प्रतिकारक शक्ति बढ़ती हैं जिससे गो-पालको का स्वास्थ अन्य कि अपेक्षा बेहतर रहता हैं। गाय के स्वभाव का गोपाल पर भी बड़ा प्रभाव पढता हैं। जिस तरह गाय स्वभाव में शांत, निर्मल व परोपकारी होती हैं उसी तरह गोपाल का स्वभाव भी ढल जाता हैं। जिनका जीवन गाय से जुड़ा होता हैं वह क्रोध, लालच व घमंड जैसी विकृतियों से स्वयं को दूर रखने में अधिक सफल होते हैं। गोपालको पर गाय के ऐसे प्रभावों से जो परिवार गो-सेवा से जुड़ा होता हैं वहाँ पारिवारिक समन्वय बना रहता हैं। ऐसे परिवारों में बालपन के लिये आवश्यक दुध-माखन-घी कि कमी नहीं रहती व वृद्धावस्था को पुरा मान-सम्मान व सेवा प्राप्त होती हैं। ऐसा इसलिये भी हैं क्यों की जिस परिवार ने अपने बालपन से गौ-सेवा को अपनाया हैं वे अपने परिवार के वृद्धजनों कि सेवा से कभी पीछे नहीं रहेंगे। गोपालको का परिवार समाज में श्रेष्ठ आचरण का पुरक बना रहता हैं जिससे समाज में सेवा-भाव व सकारात्मक उर्जा कि प्रवाह चलती रहती हैं।

गोपालन सृष्टि में सर्व श्रेष्ठ व कल्याणकारी वाला एसा दायित्व हैं जो स्वयं के परिवार सहित संपूर्ण समाज को सुख, शांति व समृद्धि कि दिशा में अग्रसित करता हैं। भगवान विष्णु ने भी अपने एक अवतार “श्रीकृष्ण” को ग्वाल रूप में प्रकट कर गऊ व गोपाल के महत्व को चरितार्थ किया। मानव जीवन में जन्मे प्रत्येक मानव को अपने जीवन का कुछ हिस्सा गौ-सेवा में व्यतीत करना अती आवश्यक हैं जीससे जीवन सेवाभाव कि प्रवृत्ति में ढल सकें अन्यथा बगैर इस महत्व के जाने व्यतीत जीवन व्यर्थ कहाँ जायेगा।

परोपकारी स्वभाव

मनुष्य जिवन एक परोपकारी जीवन हैं। मनुष्य को मिला जीवन तब तक पूर्णतया व्यर्थ हैं जब तक कि उसके कर्म में परोपकार की भावना ना हो। मनुष्य जीवन को छोड शेष सारे जिवन मात्र स्वयं कि पुर्ती में ही नष्ट हो जाया करते हैं। एसा मनुष्य भी जो अपना जीवन मात्र खुद के स्वार्थ पुर्ती में ही गुजार दे वह जीवन पशु जीवन कि श्रेणी तुल्य ही हैं। परोपकार कि भावना जहाँ समाज को समृद्ध बनातीं हैं वहीं वह स्वयं को अहंकार, अभिमान व लालच जैसे दुष्प्रभावों से दुर रख कर जीवन को सात्विक बनातीं हैं।

परोपकार, अर्थात एसे कर्म जीससे दुसरे लाभंवती हो विशेषकर वे जिन्हे एसे लाभ कि आवश्यकता हैं। समाज कल्याण के लिये योगदान, दिन दुखियों कि सेवा व उनको दान भी परोपकार का ही स्वरूप हैं। सनातन धर्मअनुसार कोई भी पर्व व अनुष्ठान तब तक पुरा नहीं माना जाता जब तक की दान ना दीया जाये। मात्र दान हेतु भी अनेकों पर्व सनातन धर्म द्वारा व्याखीत किये गये हैं तथा कोई भी धार्मिक प्रथा बगैर दान के पूर्ण नहीं मानी जाती।

दान का महत्व

दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियाँ खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। मृत्यु आए इससे पूर्व सारी गाँठे खोलना जरूरी है, ‍जो जीवन की आपाधापी के चलते बंध गई है। दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेद और पुराणों में दान के महत्व का वर्णन किया गया है। किसी भी वस्तु का दान करते रहने से विचार और मन में खुलापन आता है। आसक्ति (मोह) कमजोर पड़ती है, जो शरीर छुटने या मुक्त होने में जरूरी भूमिका निभाती है। हर तरह के लगाव और भाव को छोड़ने की शुरुआत दान और क्षमा से ही होती है। दानशील व्यक्ति से किसी भी प्रकार का रोग या शोक भी नहीं चिपकता है। बुढ़ापे में मृत्यु सरल हो, वैराग्य हो इसका यह श्रेष्ठ उपाय है और इसे पुण्य भी माना गया है।

दान व सहायता में फर्क

दान व सहायता युँ तो दोनों ही परोपकारी भावना ही हैं किंतु जहाँ “दान” धर्म, समाज व सृष्टि के कल्याण हेतु अर्पित किया जाता हैं वहीं “सहायता” करते वक्त मात्र जरूरतमंद के आपूर्ति का ध्यान रखा जाता हैं। सहायता एहसान-व-अभिमान का कारण बन सकती हैं लेकिन दान केवल पुण्य का ही कारण बनता हैं क्यूँ की अहंकार-कृपा स्वरूप दिया गया दान कभी भी “दान” कि श्रेणी नहीं आ सकता। दान देते वक्त जहाँ भावना सर्वव्यापी कल्याण की होती हैं वहीं किसी कि जरूरत में दि गई सहायता मात्र आंशिक लाभकारी होती हैं।

दान देते समय निम्न बातों का ध्यान जरूरी हैं…

– दान कर्ता व ग्रहण कर्ता की भावनायें धार्मिक व जन कल्याणी होनी चाहिये।
– अधर्मी को दिया गया दान भी अधर्म हैं।
– दान का उपयोग हर तरह से कल्याणकारी हो यह सुनिश्चत करना दानकर्ता की ही जिम्मेदारी हैं।
– यदि दिये गये दान का उपयोग किसी भी रूप से पाप कर्मो में लग जाये तो उसके पाप का सहभागी दान कर्ता बनता हैं व परिणाम संपूर्ण समाज को भी भुगतना पढता हैं।
– समृद्ध समाज के लिये दान प्रथा आवश्यक हैं जिसके बगैर परोपकारी आचरण समाज में पनप नहीं सकता।

पुराणों का महत्व

हमने कइ महानुभावों से सुनते हैं की भक्ति मे बड़ी शक्ति होती हैं, यह एक वास्तविक सत्य हैं। रामायण व महाभारत के किस्से मात्र कहानीयाँ नहीं हैं। यह हमारा इतिहास हैं और इस इतिहास मे सम्मलित हर एक चरित्र धर्म की व्याख्या करता हैं। जहाँ अधर्मी के अधर्म की पहचान होती हैं वहीं धर्म रक्षकों की भूमिकाएं हमें धर्मज्ञान के लिये प्रेरित करती हैं। प्रभु राम व श्री कृष्ण के कहे वचन व परिस्थितीयों मे लिये गये निर्णयों से हमारे विवेक को दिशा मिलती हैं। इनके किस्से व्यक्ती के चरित्र निर्माण मे कारगर सिद्ध होते हैं। इनसे मिली शिक्षा आत्मविश्वास, जगाती हैं। पुराणों के किस्से इतने सरल हैं कि बालपन में भी सुना जा सकते हैं और भावार्थ में इतने गहरे हैं कि जीवन में जब भी इनपर चिंतन करे तो हर बार एक नई चेतना का अनुभव मिलता हैं।

पौराणिक कथा से चरित्र नीर्माण

हमारे इर्द-गिर्द हमें कइ महानुभवी इस विचार के मिलते हैं जिनके विचार से गीता-पुराण मात्र वृद्ध अवस्था में पढने के साहित्य हैं जिनसे सामान्य जीवन में कोई भला ना होना। हमारे शिक्षित वर्ग के बहोत से साथी एसे विचार के समर्थक मिलेंगे लेकिन यह पुरी तरह असत्य, निराधार व वास्तविकता से परे हैं। वेद-पुराण से मिली शिक्षा मानवीय जीवन में सहजता लाकर चरित्र निर्माण की भूमिका निभाती हैं। जिनके बचपन पौराणिक कथाओं को सुनकर गुजरते हैं उनका जिवन आत्म विश्वास भरा होता हैं। जितने भी पौराणिक किस्से हैं सभी व्यक्ती मे धर्मज्ञान का निर्माण करते हैं व जीवन काल में भटकने से बचाते हैं। एसे पौराणिक किस्सों का उपयोग कर हम स्वयं के सहित अपने बच्चों के जिवन को उज्ज्वल बना सकते हैं। इस तरह जो ज्ञान हमारे जिवन के लिये उपयोगी हो सकता हैं उसे हम यदि बुढ़ापे के लिये छोड़ दे तो यह कैसी मूर्खता होगी। तब तक हमारा अधिकांश जिवन हमारी अज्ञानता कि भेंट चढ चुका होगा। इसका एक पहलु यह भी हैं कि जिसने अपना जिवन ही वेद-पुराणोंं को नकार कर अज्ञानता में गुजार दिया हो जबकी उसे उसमें ज्ञान अर्जित करने की क्षमता होती थी वह बुढ़ापे में किस तरह इन ज्ञान से मोह लगा पायेगा। पते की बात यह भी हैं कि वृद्धावस्था तो ज्ञान अर्जित करने के लिये ना हो कर अपने जिवन में अर्जित ज्ञान व अनुभव फैलाने के लिये होनी चाहिए।

सभी पुराण व ग्रंथ किसी ना किसी तरह व्यक्ति के विचारो को प्रभावित करते हैं। इनसे धर्म का ज्ञान भी बढ़ता हैं और आत्मविश्वास की नीव भी भरते हैं और सबसे बड़ी विशेषता यह हैं कि इनका आधार यथार्थ रूपी हैं ना कि कल्पना रूपी। कोशीश यहीं होनी चाहिये की परिवार के सदस्यों को बचपने से ही इनके रंग में ढाला जाये।

जानिये हमारे पुराण के कुछ एसे किस्सों का महत्व जिनसे हमारा जिवन निष्पाप व कल्याणकारी बन सकता हैं।

रामायण

# श्रवण के किस्से माता-पिता कि सेवा के लिये तत्पर रहना सिखाते
# प्रभु राम का जीवन मर्यादित आचरण, पिता वचनों का पालन व हर परिस्थिति में संतुलित व्यवहार व उचित निर्णय कि प्रेरणा देता हैं
# माता सिता का जीवन पत्नि की मर्यादा, पती सेवा व त्याग की महीमा सिखाता हैं
# जहाँ भाई लक्ष्मण का जीवन प्रभु राम जैसे भाई के संकल्पों मे सहयोग करना सिखाता हैं वहीं विभीषण का घरभेदी व्यवहार रावण जैसे भ्राता का विरोध कर धर्म की रक्षा का पाठ भी पढ़ाता हैं
# हनुमान जी का निःस्वार्थ जीवन सेवाभाव सहित शौर्य व साहस के को चरितार्थ करता हैं
# सुग्रीव व वानर सेना द्वारा युद्ध के प्रती तत्परता कुशलता व धैर्य को प्रमाणित करती हैं
# महाज्ञान के बावजूद रावण का अंत क्रोध-व-अंहकार से दुर रहना सिखाता हैं

महाभारत

# भीष्मपितामह का जिवन देश के लिये जिवन न्यौछावर करना सिखाता हैं
# धृतराष्ट्र का अंधकार भरा पुत्र-प्रेम विनाश का कारण बन जाना भी सचेत करता हैं
# श्री कृष्ण की संपूर्ण कृष्ण लीला ही ज्ञान व भक्ति से भरी हैं
# अर्जुन का ज्ञान व शिष्य स्वभाव वाला आचरण विद्यार्थी के गुण सिखाता हैं
# कर्ण का दानवीर रूप त्याग कि महत्वकांक्षा जगाता हैं
# द्रौपदी का जीवन नारी सम्मान में लडना सिखाता हैं
# दुर्योधन की हठ हमें जिद्दी होने से बचाती हैं
# संपूर्ण महाभारत में धर्म-भक्षकों को उनके ही अंदाज़ में धर्मरक्षक द्वारा दिये गये प्रती उत्तर का अनूठा उदाहरण पेश करता हैं

भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्‌गीता (श्रीमद् भागवत गीता) सनातन धार्मिक ग्रंथों में से एक विशेष ग्रंथ माना जाता है। यह मात्र एक ग्रंथ नहीं है, बल्कि हजारों वर्षों पहले कहे गए ऐसे उपदेश हैं जो मनुष्य को आज भी जीने की कला सिखाते हैं। जीवन के विभिन्न रास्तों पर उसका मार्गदर्शन करते हैं।श्रीमद्भगवद्‌गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। भारत के इतिहास का एक ऐसा युद्ध जो दो राज्यों नहीं बल्कि दो परिवारों के बीच हुआ था। जिसका उद्देश्य था धर्म का पालन करना तथा सत्य को जीत हासिल कराना।आज भी मनुष्य जब जीवन के कई पड़ावों पर आकर परिस्थितियों से मजबूर हो जाता है तो श्रीमद्भगवद्‌गीता ही उसे सही मार्ग दिखाती है। यह ग्रंथ उस मनुष्य को हमेशा ही सत्य का मार्ग चुनने की सलाह देता है।श्रीमद्भगवद्‌गीता में केवल उपदेश ही नहीं, उसमें शामिल किए गए अध्याय मनुष्य को सही फैसला लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इन सभी अध्यायों में से प्रसिद्ध अध्याय है श्रीकृष्ण तथा राजकुमार अर्जुन के बीच युद्ध शुरू होने से पहले हुआ वार्तालाप।एक ओर महाभारत का युद्ध चल रहा है और दूसरी ओर श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के बीच मस्तिष्क के माध्यम से वार्तालाप चल रहा है। यह वार्तालाप चंद लम्हों का ही थी जिसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का सार दिखाया। श्रीमद्भगवद्‌गीता का एक और अध्याय मनुष्य को जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाता है। यह अध्याय मनुष्य को समझाता है कि किस प्रकार से अपने अंतर्मन पर नियंत्रण कर सकता है। भगवद्गीता एक संपूर्ण धर्मग्रंथ होते हुए ज्ञान का वह श्रोत हैं जिसे भगवन ने अपने श्रीमुख से स्वयं उद्घोषीत किया हैं। भगवद्गीता को एक रहस्यमयी ग्रंथ कहाँ गया हैं जो बालक से लेकर ज्ञानी तक को ज्ञान देने में सक्षम हैं। गीता के भावर्थ इतने गहरे हैं कि उनपर जितने ज्यादा चिंतन किये जाये उतने अधिक भावार्थ खोजे जा सकते हैं। एसे कइ ज्ञानी हैं जिन्होने गीता के विषय में उपदेश देते वक्त यह स्वीकार किया हैं कि सिमित शब्दो में उनके लिये भी पूर्ण रूप से भगवद्गीता के श्लोको का भावार्थ समझाने में वे असमर्थ हैं।

भगवद्गीता के भावर्थो में मानव जिवन काल से जुड़े सारे प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं। जिस किसी ने भगवद्गीता का ज्ञान अपने जिवन में जितनी जल्दी ग्रहण कर लिया उसने अपना शेष जीवन धन्य बना लिया। इसीलिये यदि कोई यह विचार रखता हैं कि वह गीता ज्ञान अपने वृद्धावस्था में ग्रहण कर सकता हैं तो यह उसके लिये कम लाभकारी ही होगा क्यूँ की जिवन व्यापन की सिख वह तब प्राप्त करेगा जब उसने अपने जिवन का एक बड़ा हिस्सा बीता लीया होगा।

बुढ़ापे का सहारा

हमारी संस्कृती में संतानों को वृद्धावस्था में सहारे के तौर पर माना जाता हैं और इस मान्यता में कोई बुराई नहीं। माता-पिता की यह आकांक्षा उन्हें अपनी संतानों में चरित्र निर्माण की और प्रेरित करती हैं। संतानों के लिये तो माता-पिता कि सेवा प्रथम कर्तव्य भी माना जाता हैं।

कलयुग के इस आधुनिक युग में कइ आधुनिक माता व पिताओं ने अपने बुढ़ापे के सहारे के लिये अपने बच्चों पर आश्रित होने कि सोच छोड दी हैं। अब ये आधुनिक माता-पिता इसके लिये अपनी कमाई से जीवन भर बचत करते हैं जिससे वृद्धावस्था में उन्हें किसी के आगे हाथ ना फैलाना पडे। आधुनिक माता-पिता की यह सोच वाकई सहरानीय हैं। लेकिन इसका एक दुसरा पहलु भी हैं। एसे माता पिता अपनी संतान के चरित्र निर्माण के विषय पर पूरी तरह लापरवाह हो जाते हैं। वृद्धावस्था के लिये भले ही कोई कितना भी धन संचय करले किंतु यदि जल पिलाने के लिये संतान साथ ना हो तो सारी संपत्ति बेकार ही रहेंगी क्यूँ की संपत्ति मात्र दास खरीद सकती हैं किंतु सकुन की मृत्यु नहीं। संतान वृद्धावस्था में माता-पिता का कितना साथ देते हैं यह पूर्ण रूप से उनको मिले संस्कार व अध्यात्म ज्ञान पर आधारित हैं।

माता-पिता के लिये यह प्राथमिक जिम्मेदारी हैं कि वे अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दे, सभ्यता का ज्ञान दे व उनके विचार शैली में अध्यात्म पर झुकाव हो जिसके आधारभुत रूप से परिवार, समाज व देश के प्रती संवेदनशील बन सकें एवं माता-पिता के लिए वृद्धावस्था में उनका सहारा बन कर उभरे। सृष्टि में मानव जिवन संतान से माता-पिता व माता-पिता से दादा-दादी जैसे रूप-चक्र पर ही आधारित हैं। जो आज संतान की भूमिका में हैं वह कल माता या पिता की भूमिका में आयेगा और यह चक्र निरंतर चलता रहेगा। जो इस चक्र को समझते हुए आज संतानों के चरित्र निर्माण को प्राथमिकता देंगे वह अंत समय में तृप्त आत्मा से वृद्धावस्था व्यतीत कर सकेंगे। संतान हमारे जिवन के परिश्रम की खेती हैं, जैसा हम बीज बोयेंगे फसल भी वैसी प्राप्त होनी हैं। जिवन कि वास्तविक पूँजी गुणवान व विचारशील संतान हैं।

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