समाज का महत्व
मानव जीवन बगैर समाज के अधूरा हैं। हमारा समाज हमें हमारी सभ्यता व संस्कृती से परिचित करवाता हैं। हमारी सांस्कृतिक धरोहर को संजोए रखने में समाज की अहम भूमिका होती हैं। समाजिक सद्भाव कि अनीवार्यता नैतिकता कि दिशा में प्रेरित करती हैं। हम अपने समाज से जुड़ते हुए समाजिक परिवेश कि रक्षा कर अपनी अगली पीढी के कल्याण मार्ग को सुनिश्चित किया जा सकता हैं। भारतीय समाज से जुड़े विषय जैसे सभ्यता, संस्कृति, अनेकता, रीति-रिवाजों व कुरीतियों के प्रति जागरूक हो कर हम न केवल अपने समाज बल्कि राष्ट्र के कल्याण में अहम योगदान कर सकते हैं।
सामाजिक संस्थाएँ
आज लगभग हर समाज के लोगों ने अपने-अपने क्षेत्रों में सामाजिक संस्थाओं की स्थापना कर स्वयं को संगठित रखने का एक सराहनीय प्रयास किया हैं। सामाजिक संस्था से जुड़ कर हमें अपने समाज को पहचानने में बड़ी सहायता मिलती हैं। हम अन्य सदस्यों के साथ मिलकर अपने सामाजिक पर्व को हर्षोल्लास उल्लास से मना सकते हैं।
सामाजिक संस्थाओं की प्रमुख भूमिका:
– प्रत्येक सदस्यों को सामाजिक संरक्षण प्रदान करना
– समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं को संजो कर सभी सदस्यों को उनसे अवगत कराना
– ऐसे उपयुक्त अवसरों का निर्माण करना जब सभी सदस्य मिलकर प्राचीन रीति-रिवाजों को निभा सकें
– समाज के लोगों को समाज के प्रती जागरूक व सतर्क रखना
– समयानुसार समाज के कुरीतियों को मिटाना व सुप्रथा को उभारना
– समाज विरोधी गतिविधियों को पहचान कर समाज को उचित व अनुचित विषयों पर निर्देशित करना
– समाज कल्याण में पूर्वजों के त्याग-बलिदानों से सदस्यों व विश्व को परिचित कराना
– प्रत्येक सामाजिक पर्व पर समाज व देश हित में उभरे बलिदान व योगदान को याद कर उनसे जुड़ी विभूतियों को सम्मानित करना जिससे वे हमेंशा समाज के लिए प्रेरणा का श्रोत बने रहे
– समाज में समभाव-सद्भावना रूपी वातावरण बनाये रखना
– राष्ट्र-निर्माण में समाज की निरंतर भूमिका बनी रहे ऐसे प्रयास करना
जहाँ अनेकों सामाजिक संस्थाएँ अपने दायित्व को भली-भाँति निभाने में लगी हैं वहीं कुछ लोग ने ऐसी संस्थाओं को मात्र मनोरंजन व लूट का माध्यम बना कर रख दिया हैं। सामाजिक संस्थाओं के भटकने का प्रमुख कारण उनके संचालन कर्ताओ का स्वार्थी व विचार हीन होना हैं। एक भटकी हुई सामाजिक संस्था समाज का कल्याण कर पाने में तो असमर्थ होती ही हैं साथ ही उससे जुड़े लोगों के सामर्थ्य को भी नष्ट कर सकती हैं। सामाजिक संस्था से जुड़े प्रत्येक सदस्य का यह कर्तव्य हैं की वह संस्थाओं के सभी कार्यक्रमो में अपनी यथासंभव भूमिका निभाए और जब ऐसा लगे की सामाजिक संस्था अपनी मूल विचारधारा से भटक रहीं हैं एक सदस्य के तौर पर संस्था की असामाजिक नीतियों का खुलकर विरोध करे।
समाज की कुरीतीया
युँ तो राष्ट्र निर्माण में समाज की भूमिका अहम हैं किंतु यदि यहीं समाज कुरीतीयाँ अपनाने लग जाये तो समाज अपनी जिम्मेदारियों से भटक जाता हैं। एक भटका हुवा समाज ना केवल स्वयं का बल्कि राष्ट्र को भी पतन की और ले जाता हैं। आज आधुनिक बनने की होड में कइ समाज वालों ने नाना प्रकार की कुरीतीयों को अपनाना आरंभ कर दिया हैं।
एसी कई कुरीतीयाँ हैं जिन पर समाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों को विशेष ध्यान देना चाहीये।
समाज कल्याण के नाम राष्ट्र का शोषण
समाज कल्याण के नाम पर आज हर समाज स्वयं को पीछडा बता कर आरक्षण कि मांग लेकर खडा होता जा रहा हैं। आज जिस स्वरूप में आरक्षण प्रथा उभरकर आ रहीं वह किसी भी समाज के लिये हितकारी सिद्ध नहीं हो रहीं उलट राष्ट्र निर्माण में अवरोधक बन कर खडी होती जा रहीं। आरक्षण का लाभ जिन पिछडे परिवारों को मिलना चाहिये उनका भी हक पिछडे समाज के कुछ पूंजीपति ही उठाते जा रहे। आरक्षण की होड में पडने से बेहतर हैं कि समाज प्रतिनिधी स्वयं के समाज को उस मार्ग पर ले जाने का प्रयास करे की आरक्षण की जरूरत ही ना पडे। आरक्षण प्रथा तभी सफल हो सकती हैं जब इसका एक मात्र आधार व्यक्ति की गरीबी बने ना की व्यक्ति की जात। एसी व्यवस्था को लागु करने के लिये ऐसे समाजों को आरक्षण लाभार्थी से खुद को हटाने की पहल करनी होगी। यदि प्रत्येक स्वाभिमानी समाज पहल करते हुए आरक्षण को नकारना शुरू कर दे तो राष्ट्र आरक्षण के दलदल से उभर सकता हैं जिससे वास्तविक कमजोर वर्ग लाभार्थ को प्राप्त हो सके।
समाजिक भेद-भाव
भारत भूमी पर जितने भी समाज पनपे हैं उनके पास अपना एक अलग ही गौरवशाली इतिहास हैं। प्रत्येक समाज पुरखो के शौर्य व बलिदानों कि विर गाथाओं के धनी हैं। एसे समाज हैं जो अपने पुरखो के बलिदानों को याद कर गर्वानीत होते हैं, एसा अवश्य होना ही चाहिये। लेकिन अपने गर्व का आचरण कइ बार घमंड का रूप भी धारण कर जाता हैं व वे दुसरे समाज कि आलोचनाओं पर उतर आते हैं जो समाजिक भेद-भाव का कारण बन जाते हैं। सभी को अपने समाजिक पुरखो पर गर्व करने का अधिकार तो हैं किंतु किसी भी अन्य समाज पर उँगली उठाने का नहीं। समाजिक संस्था अपने समाज को किस तरह अन्य समाज वालों के लिये प्रेरणा श्रोत बना सकें एसी दिशा में कार्यरत होना चाहिये ।
समाज प्रतिनिधी पद पर पूंजीपतियों का वर्चस्व
आज हर समाज में प्रतिनिधियों के रूप में पूंजीपतियों का ही वर्चस्व बनता जा रहा हैं। पूंजीपति अपनी प्रतिष्ठा बनाने हेतु समाजिक संस्था को भारी राशि अनुदान कर प्रतिनिधी के रूप में आसानी से उभर आते हैं। समाज भी एसे पूंजीपतियों को आसानी से स्वीकार करलेता हैं तथा समाज को अग्र ले जाने की उनकी क्षमता कि और विचार नहीं किया जाता। इसका दुष्परिणाम यह होता हैं कि समाजिक संस्था एक “मनोरंजन क्लब” में परिवर्तित हो जाती हैं और इन पूंजीपतियों द्वारा समाज हित कि एकत्रित राशि फिजूल खर्च कि दिशा में जाने लग जाती हैं, कइ निर्धन असमर्थवान परिवार समाजिक संस्था से कटते चले जाते हैं। होना तो यह चाहिये कि समाज का नेतृत्व धनवान के हाथों में ना होकर विचारवान के हाथों में होना चाहिये। समाज निर्माण में धन से ज्यादा विचार ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। एक विचारवान समाज के लिये धन की कभी कमी नहीं पडती।
पाश्चात्य रंग के पिछे स्वयं की सभ्यता-संस्कृती का पतन
आज किसी भी समाजिक पर्व में शामिल सदस्यों के रंग-ढंग पुरी तरह पश्चिमी रंग में डूबते नजर आते हैं। इस तरह जो समाज अपनी सभ्यता का रक्षक बनना चाहिये वहीं भक्षक के रूप में उभरने लगा हैं। निजी जिंदगी में कोई भले ही कुछ पहने मगर कम-से-कम समाजिक पर्व में समाज की वास्तविक सभ्यता का अनुसरण का चलन होना चाहिये। यहीं मौका होता हैं जहाँ सम्मलित परिवार की युवा पीढी को अपनी सभ्यता से परिचित कराया जा सकें। लेकिन कुछ लोगों का पाश्चात्य प्रेम पुरे समाज के पतन का मार्ग खोल देता हैं।
समाज संस्थओं का वार्षिक सम्मेलन
समाज का वार्षिक स्नेह सम्मेलन एक महत्वपूर्ण पर्व हैं जो समाज के लोगों को एक दूसरों से जुड़ने का उचित अवसर देता हैं. वार्षिक सम्मेलन में सबसे बड़ी व अहम भूमिका वह स्थान निभाता हैं जहाँ समाज का वार्षिक सम्मेलन किया जाता हैं. लेकिन इस महत्वपूर्ण पर्व में आजकल एक बेढंगी चलन चल पडा हैं जिसके चलते कइ समाजिक संगठनों द्वारा महंगी-से-महंगी और आडम्बर से भरे अम्युजमेंट/वाटर पार्क जैसी जगहो को अपने वार्षिक “स्नेह” सम्मेलन के लिये चुना जा रहा।
अगर हम संपूर्ण भारतवर्ष कि संस्कृती व परम्परा पर थोड़ा भी विचार करे तो पायेंगे की भारत के किसी भी समाज ने, चाहे कितना भी नीचा हो या उँचा, कितना भी गरीब हो या धनी हो, कभी किसी ने भी दिखावेपन को ज्ञान से उपर नहीं माना हैं ये बात और हैं कि आज दुनियाँ दिखावे की हैं लेकिन यह भी एक गम्भीर विचार का विषय हैं कि अपनी सभ्यता, संस्कृती, मान और मर्यादा को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से, एक समाजिक-संगठन के नाम पर एकत्रित हुए लोग स्वयं ही अपनी संस्कृती को “रोंदने” लग जाये!!!
एसे भांड तरीकों से वार्षिक सम्मेलन आयोजित करना वाकई एक गम्भीर विषय हैं क्यूँ की जो भारतीय समाज ज्ञान-त्याग-तपस्या-परिश्रम का पर्यायवाची समझा जाता हैं व जिसने विश्व को ज्ञान और दिशा दि हैं वहीं आज खुद दिशाहीन व विचारो के आकाल से ग्रस्त नजर आने लगा हैं!!!
यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होगा की एसे बनावटी एवं पर्यावरण विरोधी स्थलों पर समाजिक पर्व आयोजित करना, एक असमाजिक फैसला हैं. एक समाज के वार्षिक सम्मेलन के जितने मायने हो सकते हैं, उन सभी मायनों को धुल में मिलाने वाला फैसला।
एक निजी परिवार वाटर-पार्क में चला जाये या सैर-सपाटे के नाम पर समाज का एक सक्षम वर्ग वाटर-पार्क पहुँच जाये ये बात और हैं लेकिन पुरा का पुरा समाज, जिसमें बडे़-बुजुर्ग-सक्षम-असक्षम, को वार्षिक सम्मेलन के नाम पर लाकर वाटर पार्क या रिसोर्ट में खडा कर दिया जाये तो इससे ज्यादा हास्यास्पद और असंवेदनशील निर्णय और क्या हो सकता हैं ?
एसा कइ वर्षों से जारी हैं जिसके लिये सबसे बड़ी दलील यह दि जाती हैं की महिलाओं और बच्चों का “मनोरंजन” हो जाता हैं !!! और इसके लिये लगातार हर वार्षिक सम्मेलन के नाम पर पुरे समाज से जुटने वाली राशि का एक बड़ा हिस्सा बगैर दिशा के और बगैर समाज कि दशा को ध्यान में रख कर “मनोरंजन” की भेंट चढा दिया जाता हैं !!!
प्रश्न यह हैं की…
— क्या समाज के लोग निजी जिंदगी में परिवार के साथ “मनोरंजन” नहीं करते हैं क्या?
— क्या संपूर्ण समाज के लिये सबसे बड़ा चिंता का विषय यहीं रह गया हैं की महिलाओं और बच्चों का “मनोरंजन” किस प्रकार हो ?
— क्या मनोरंजन के लिये “वार्षिक सम्मेलन” जैसा “उद्देश्यपुर्ण” समय उचित हैं ?
गौर करने वाली बात यह हैं की आज के दौर का अधीकतर परिवार निजी मनोरंजन के लिये ऐसी जगहो को ही चुनता हैं और अगर कोई परिवार ना भी जाता हो तो भला ही हैं। लेकिन मुसीबत तो यह हो चली हैं कि अब हमारे समाजिक संगठन ही खुद हमें वार्षिक सम्मेलन के बहाने यहाँ लाकर खडा कर रहे!!! निजी तौर पर कोई कितनी ही बार एसी जगह जाये पर समाजिक तौर पर यह एक कुप्रथा से कम नहीं।
क्यों समाजिक पर्व के लिये रिसोर्ट-वाटर पार्क जैसी जगह उचित नहीं
# एसे स्थान पर्यावरण के दुश्मन हैं जो जल-जमीन-जंगल का दुरुपयोग कर केवल समृद्ध वर्ग के मनोरंजन के लिये सिमित कर दिये जाते हैं
# जाहिर हैं कि खर्चीले होने के कारण ये स्थान समाजिक संगठनों के लिये आर्थिक दृष्टि से भी उचित नहीं विषय किसी संगठन के सक्षम होने या ना होने का नहीं बल्कि समाज से एकत्रित हुई धनशक्ति के सदुपयोग का भी हैं.
# ये स्थान लोगों के अंदर दिखावेपन की मानसिकता को उभारते हैं जो की समाजिक संगठन के लिये घातक हैं. समाजिक पर्व मे लोग जितने ही आदर-भाव, सादगी, भक्ति से सम्मलित होंगे समाज के प्रती भी उदार भाव रखेंगे
# बडे़-बुजुर्ग/असक्षम वर्ग जो यहाँ आकर भी इनके लाभ नहीं उठा सकते फिर भी उनके प्रवेश के लिये भी अकारण प्रवेश शुल्क लगवाना सिधे तौर पर पैसों कि बरबादी हैं जो इन रिसोर्ट वालों की जेब मे बेवजह डाल दी जाती हैं
# एसे स्थानों पर मिले कइ दृश्यों में नैतिकता का पतन खुले आम नजर आता हैं जिससे एसे स्थानों का असमाजिक चेहरा साफ नजर आता हैं एवं एसी जगह समाज को ना लाकर अनचाही परिस्थितीयों से बचा जा सकता हैं.
मनोरंजन के लिये वार्षिक-सम्मेलन से अलग कोई और पर्व भी तो तय किया जा सकता हैं जिसमें मात्र इच्छित व सक्षम वर्ग हिस्सा ले व जिनको रूचि ना हो या असक्षम हो वे अलग रह सकें. वार्षिक सम्मेलन के नाम पर सभी को आने पर क्यूँ मजबूर किया जाये? इस तरह समाज को कइ लाभ मिलेंगे…
— वार्षिक उत्सव में सभी कि उपस्थिती रहेंगी एसे कइ लोग हैं जो एसे प्रपचंडो से बचने के लिये ना आना ही बेहतर समझते हैं
— असक्षम (बुजुर्ग-असहाय) पर होने वाले फिजूल व्यव की बचत जो कि अन्यथा बेमतलब पार्क वालों को भेंट चढा दी जाती हैं
— कम खर्च में सम्मेलन, समाज के लिये बचत जिससे आर्थिक मजबुती और उन्नति के अवसर
वार्षिक सम्मेलन के लिये ध्यान देनेवाली बाते
# वार्षिक सम्मेलन समाज के लोगों के लिये मेल-मिलाप एक सुअवसर हैं जब सामाजिक मुद्दों पर बहस जरूरी हैं. समाज को हर वार्षिक सम्मेलन में जहाँ खुद की उपलब्धि और विफलता पर आत्ममंथन करना जरूरी होता हैं वहीं देश हित में किये गये या किये जा सकते अनुदानो पर भी गम्भीरता से विचार करना ही चाहिये लेकिन सैर-सपाटो वाली एसी जगहो पर काफी कम समय या शायद ही एसी चर्चाएं और वो भी “गंभीरता” से हो पाती होगी।
# जहाँ तक हो, सभी की वेशभूषा पारंपरिक हो जिससे मानमर्यादा बनी रहे। वार्षिक सम्मेलन पर पारंपरिक वातावरण लाभप्रद रहेगा, कहीं तो हमारी नई पीढ़ी को भी समाज की सभ्यता का आभास मिले, उससे लगाव हो और शुद्ध वातावरण तैयार हो सके।
# वार्षिक सम्मेलन का स्थान जितना ही धार्मिक और अपनी परम्पराओं से जुड़ा होगा, जैसे मंदिर या गौशाला, सदस्यों की सादगी उतनी ही उभरकर आएगी और सेवा भाव भी जगेगा, समाज के प्रती लगाव बढे़गा. इस तरह मंदिर या गोशाला को दिया गया अनुदान भी पुण्य का काम करेगा “कायाकल्प” वाले स्थलों से लोगों के भाव भी बनावटी ही मिलेंगे…फिर बाहरी दुनियाँ के और समाज के मेल-मिलाप में फर्क ही क्या रहेगा!
# क्या आज की शिक्षा से बच्चे हमारे अपने समाज के इतिहास व बलिदानों को जान पाते हैं? जाहिर हैं, नहीं तो फिर क्यूँ ना समाज के वार्षिक सम्मेलन में हम अपने समाज के विर विभूतियों द्वारा समाज व देशहित के लिये किये गये बलिदानों को सम्मान पूर्वक कथा, कविता या नाट्य द्वारा याद किया जाये !!! क्या इस तरह से समाज के प्रती ज्ञान देयक कार्यक्रमो को मनोरंजन के तौर पर नहीं अपनाया जा सकता!! यह दर वर्ष अनिवार्य रूप से समाजिक संगठनों को करना ही चाहिये जीससे समाज के हर सदस्य विशेष रूप से महिलाये व बच्चें समाज से जुड़ी परंपराओं, बलिदानों और शौर्य को पहचान सके, समाज से अटूट रूप से जुड़े सकें। यह इसीलिये भी जरूरी हैं क्यूँ की जब महिलाये जागृक होगी तो बच्चों को सिखायेगी और बच्चें यदि समाज के प्रती कटिबद्धता से जुड़ जाये तो समाज का भविष्य सुरक्षित रह पायेगा.
यह जरूरी नहीं कि उपरोक्त सारी बाते अमल में लाई जा सकें किंतु एसे विचारो पर बहस तो होनी ही चाहिये एक निजी परिवार या वर्ग किस तरह समय का सदुपयोग या दुरुपयोग करता हैं यह अलग विषय हो सकता हैं लेकिन संपूर्ण समाज मिलकर अगर दिशाहीन हो कर चल पडे तो भविष्य ही आधारहीन नजर आने लग जाता हैं। संगठन का हर एक निर्णय और हर एक कार्यक्रम केवल और केवल समाज के हित में ही होना चाहिये क्यूँ कि एसा तो कोई विचारहिन व्यक्ति ही होगा जो समाज से मनोरंजन के नाम पर जुड़ा हो. फिर तो एसे व्यक्ति को किसी मनोरंजन क्लब की सदस्यता की जरूरत हैं ना कि समाजिक संगठन की। एक आर्थिक द्रष्टी से जुजता समाज तो फिर भी अपने अस्तित्व को बचा सकता हैं लेकिन विचारो से विहीन समाज वाकई पतन कि और अग्रसर हो जाता हैं.
बदलते वक्त और सोशियल मिडिया से जागृत होते नौजवानों को चाहिये कि वे अपने समाज द्वारा अपनाई जा रहीं इस कुप्रथा का खुलकर विरोध करे हो सकता हैं कि समाज में विरोध जताने में हम अकेले भले ही पड जाये पर कहीं से तो बदलाव कि शुरूवात करनी ही होगी, समाज की आँखों में पडी आडम्बर की धुल को मिटाना ही होगा नहीं तो हमारी खामोशी के कारण एसी भद्दी प्रथाओं के जरीये समाज के मूलभूत उद्देश्य यूँ ही दम तोड़ते रहेंगे।
साधारण सी नजर आने वाली ये कुरीतीयाँ परिणाम में बेहद घातक सिद्ध हो सकती हैं। समाज कार्य मे जुटे प्रत्येक प्रतिनिधियों को एसी कुरीतीयों से समाज को बचाना होगा व प्रत्येक सदस्य को अपने प्रतिनिधियों से इसके विरोध में खडा होना होगा। समाजिक बदलाव कि एसी क्रांति से ही समाज व देश का कल्याण संभव हो पायेगा।
सभ्यता व संस्कृती
आचार्य चाणक्य अनुसार कोई भी देश तब तक गुलाम नहीं समझा जा सकता जब तक कि वह अपनी सभ्यता व संस्कृती को पतन से बचा कर रखने मे सफल हो जाता हैं। चाणक्य के यह कथन सभ्यता व संस्कृती के महत्व को पुरी तरह चरितार्थ करते हैं। हमारी सभ्यता-संस्कृती हमारी मातृभूमि कि आत्मा हैं, एक पहचान हैं। यदि हमने हमारी इस पहचान को नष्ट कर दिया तो हम कभी अपनी पीढी को स्वाभिमानी व स्वावलंबी नहीं बना पायेंगे। फिर ना ही इन्हे अपनी मिट्टी से और ना ही अपने लोगों से कोई लगाव रह जायेगा। बगैर लगाव के मातृभूमि की रक्षा संभव नहीं।
अनेकता में एकता
भारत अनेकों प्रकार की सभ्यताओं का धनी हैं। भारत का प्रत्येक खंड की अपनी अलग भाषा हैं, पहनावा अलग हैं यहाँ तक की खान-पान में भी अनेकों विविधता हैं। यहीं विविधता उनकी अपनी विशेष पहचान हैं। हमेने कइ महानुभावों से सुना होगा की हमारी यहीं अनेकता के चलते हम कभी एक नहीं हो पाते, लेकिन यह पूर्णतया गलत हैं। वास्तविकता तो यह हैं कि भारत में अनेकों प्रकार कि सभ्यता होते हुए भी हमारी संस्कृती एक हैं और वह हमें एक सूत्र में बाँधती हैं। हमारी संस्कृती तोड़ने कि नहीं जोड़ने कि हैं। हम दुनियाँ में कहीं भी रहे पर हमारी संस्कृती कि जडे हमें अपनी और आकर्षित करती रहती हैं।
प्रगतिशील संस्कृती
भारतीय संस्कृती विश्व कि अती प्राचीन संस्कृती हैं। इस बात का हमें हमेंशा गर्व होना चाहिये की अती प्राचीन होते हुए यह संकुचीत सोच से पुरी तरह परे हैं। भारतीय संस्कृती सदैव प्रगतिशील दिशा में बढ़ी हैं व समयानुसार कइई प्रथायें बनती रहीं व मिटती भी चली गई। भारतीय संस्कृती “वसुदेव कुटुंबकम्” पर आधारीत संस्कृती हैं जिसके अनुसार संपूर्ण विश्व एक परिवार स्वरूप माना गया हैं। विश्व में एसी उदारवादीता शायद ही किसी अन्य संस्कृती में देखने को मिलेगी। भारतीय जनमानस का अग्रीम वर्ग भी बदलाव के लिये हमेंशा तत्पर रहा हैं। उदाहरण के लिये बलीप्रथा, बाल-विवाह व पर्दा जैसी प्रथाओं का खत्म होता अस्तित्व। समाजिक विज्ञान का यह सर्वमान्य नियम हैं कि समाजिक बदलाव तत्परता से संभव नहीं एसे बदलाव में पीढ़ियां तक गुजर जाती हैं। मुख्य विषय यह हैं कि समाज का सभ्य वर्ग बदलाव के लिये तैयार हो पाता हैं या नहीं। इस आधार पर यदि हम अन्य देशो से भारत कि तुलना करेंगे तो स्पष्ट रूप से पायेंगे कि भारतीय संस्कृती के लोग प्रगतिशील बदलाव के लिये सदैव अग्रसर रहते हैं। यह अलग बात हैं कि कुछ विरोधी इतिहासकारों ने इसे रूढवादी साबित करने में अपना जीवन खपा दिया लेकिन वे फिर भी वे पुरी तरह सफल ना हो सकें।
विदेशी शासकों ने हमारी-सभ्यता व संस्कृती को बदनाम करने में कोई कसर ना छोडी। उन्होंने हमारी कइ सुप्रथाओं को कुप्रथा के रूप में उभारा व कइ प्रथायें मनमानी ढंग से इतिहास में जोड़ी जिससे अगली पीढी भी यह मान बैठे की उनके पूर्वज वाकई अंधश्रद्धा वादी थे और वे अपनी मान्यताओं को छोड विदेशियों के ढंग को सहजता से स्वीकारते चले जाए। उन्होंने ने हर कोशिशें की जिससे भारतीय मान्यताएं रूढवादी व पिछड़ेपन का पुरक बन बैठे व मात्र पाश्चात्य संस्कृती ही आधुनिकता का स्वरूप बन जाए।
स्त्री सम्मान
विदेशी इतिहासकारों ने पूर्ण रूप से भारतीय सभ्यता को कुप्रचारीत करने के लिये घुँघट, लड़की-जन्म पर हत्या व सती जैसी प्रथाओं का विश्लेषण स्वयं मानित ढंग से किया। इस तरह उन्होंने भारतीयों के मन में यह मानसिकता भरने कि कोशिश कि हैं जिससे की हम यह मान बैठे की भारतीय समाज में स्त्रियाँ प्रचीन काल से ही उपेक्षित रहीं हैं। उनकी वैसी ही साजिश आज तक भारतीय समाज में कायम हैं। जब कि हकीकत यह हैं की भारत भूमी पर स्त्रियों का सम्मान वेदीककाल से बना हुवा हैं। भारतीय संस्कृती ने स्त्रियों को देवीयों का स्थान दिया हैं यहाँ तक की कोई भी वेदीक कार्य बगैर स्त्री के पूर्ण ही नहीं किया जा सकता। रामायण में एसा एक प्रसंग भी हैं जहाँ प्रभु राम को यज्ञ हेतु माता सिता कि अनुपस्थीती में उनकी प्रतिमा का निर्माण करना पड गया था। इस तरह कोई हमें यह समझाने कि कितनी भी कोशिश करले कि भारतीय संस्कृती ने स्त्रियों को उपेक्षित रखा, यह मानने योग्य नहीं।
प्रश्न यह हैं कि जिस तरह भारतीय समाज के पर्दा प्रथा का उल्लेख किया जाता रहा हैं उसी तरह भारतीय समाज की ही देवी-पुजा का उल्लेख क्यों नहीं किया जाता? सती प्रथा का उल्लेख इतिहास में करने वाले इतिहासकार जौहर प्रथा को वर्णित करना क्यूँ भुल गये? जिस तरह लडकीयों के जन्मते ही हत्या का उल्लेख किया गया उसी तरह उस काल में स्त्रियों पर ढाये गये मुगलों व अंग्रेजो के वहशी पूर्ण अत्याचारों का उल्लेख क्यूँ नहीं किया गया जिससे गुजर चुका हर कोई बाप अपनी बेटी को अपने ही हाथों मार देने पर मजबूर हो गया?
पर्दा प्रथा
भारतीय संस्कृती ने स्त्रियों कि अस्मिता को एक परिवार के लिये सबसे महत्वपूर्ण सम्मान दिया हैं। एसा सम्मान जिसके बने रहते परिवार सम्मानित होता और जिसके उछलते ही संपूर्ण परिवार तबाह हो जाता। इसे हर परिवार के लिये आत्मसम्मान का विषय समझा हैं। उस परिवार को मृत कि संज्ञा भी दि जा सकती हैं जो स्त्री-सम्मान का महत्व ही ना समझे। जिस तरह घर के संचित धन कि सुरक्षा कि जाती हैं उसे दुसरों कि नजरों से बचा कर रखा जाता हैं, स्त्री के सम्मान को उससे भी अधिक महत्वपूर्ण माना जाता हैं। क्योंकि लुटा हुवा धन तो पुनः संचित किया जा सकता हैं किंतु स्त्री सम्मान का पुनः निर्माण संभव नहीं। इन कारणों ने ही पर्दा प्रथा का चलन हुवा होगा। यहाँ तक की घूँघट को स्त्रियों के श्रींगार का एक हिस्सा ही माना जाता था। यह प्रथा स्त्रियों के सम्मान को बनाए रखने के लिए थी ना की उन्हे प्रताड़ित करने के लिए। अधीकांशतः समाज की उम्रदराज स्त्रियां ही आज भी इसका समर्थन करती हैं। हालांकि आज जिस तरह महिला वर्ग ने घरों से बाहर निकलकर अपनी प्रतिभा को उभारने कि दिशा में कदम बढ़ाया हैं पर्दा-प्रथा का प्रचलन संभव नहीं व जिसे भी भारतीय समाज ने स्वीकारा हैं। भारत कि उदारवादी संस्कृती का ही यह प्रमाण हैं की अब एसी प्रथायें भी समय के साथ थमती जा रहीं। अन्यथा विश्व में एसे कइ देश आज भी हैं जहाँ स्त्रियों को भारतीय पर्दा प्रथा से भी अधिक कइ पाबंदियों से गुजरना पड रहा और उनकी संकुचीत सोच बदलाव के लिये तैयार ही नहीं हो पाती।
सती प्रथा/बालिका हत्या
धर्मानुसार एक पत्नि के लिये पती परमेश्वर तुल्य माना गया हैं। जीस तरह की हमारी प्राचीन संस्कृती रहीं हैं उसके वेदीककाल में एसे किस्से भी हमें मिलते हैं जहाँ एक पत्नि यमराज से लड कर भी अपने पती के प्राण पुनः ले आयी थी। अर्थात जहाँ पती के लिये पत्नि रक्षा कि जिम्मेदारी रहीं हैं वहीं पत्नियों द्वारा पती रक्षा के भी एसे कइ किस्से मिलते हैं। इन किस्सों से हमें वेदीककाल के दौरान पति-पत्नि प्रेम के गहराई को आसानी से समझा जा सकता हैं। एसे गहरे व घनिष्ठ प्रेमबंधन में लीन कइ पत्नियों ने अपने पती वियोग को सहन ना कर सकने कि स्थिती में पती के साथ चिता में खुद को सती कर लिया होगा यह बहुतेक संभव हैं। किंतु यह कोई प्रथा के रूप में हमारी संस्कृती का हिस्सा थे यह नहीं माना जा सकता। ये प्राचीन काल के पुरी तरह से आत्मदाह के हादसे ही थे। जिन्हे किसी भी रूप में किसी को प्रेरित करने कि दृष्टि से कभी नहीं लीया जा सकता किंतु पती प्रेम में लीन सती हुई वीरांगनाओं के “पतीप्रेम” का आदर सदैव बना रहना चाहिये।
कैसे बन गई “सती प्रथा”
मुगल शासन एक और जहाँ भारतीय संस्कृती के लिये विनाशकारी बन कर उभरा था वहीं देश के स्त्री वर्ग को एक नरक में धकेल दिया था। भारतीय स्त्रियां मुगलों के अत्याचार का प्रथम निशाना बनती थी। मुगल काल में स्त्रियों ने जो अत्याचार व वहशीपन झेला हैं वह भारतीय प्राचीन इतिहास में कभी नहीं हुवा था। उस दौरान स्त्रियों पर मुगलों द्वारा किये जाने वाले अत्याचार इतने दर्दनाक व अमानवीय थे कि आज उन किस्सों को जानने के पश्चात कोई भी स्त्रियों के आत्मदाह का कारण सहजता से स्वीकार कर सकता हैं। हमारे इतिहास में जिस तरह सती प्रथा, बालिका हत्या का उल्लेख किया गया हैं वह मूल रुप से पुरी तरह विपरीत नजर आता हैं। एसी प्रथा स्त्री के मान-सम्मान को बनाये रखने के लिये ही पनपी होनी चाहिये ना कि स्त्रियों के विरोध में। भारत भूमी विरों कि वह भूमी हैं जहाँ कि वीरांगनाये मुगल शासकों से अपनी अस्मीतायें बचाने के लिये आम स्त्रियों सहित पटरानीयो तक ने खुद को जौहर कर अग्नी कुंड को सौप दिया था। जौहर वह प्रथा थी जिसमें युद्ध से अपने पती के विरगती के समाचार सुनकर आम स्त्रियों सहित पटरानीयाों तक ने स्वयं को अग्नीकुण्ड में स्वाहा कर देह को राख कर दिया करती थी जिससे वह मुगल शासकों के हाथ आने व निचोड़े जाने से खुद को बचा सकें। जिस देश में एसी वीरांगनाओं कि गाथा रचित हो वहाँ क्या यह संभव नहीं की पती की मृत्यु पश्चात मुगलों के प्रताड़नाओ का शिकार बनने के बजाये स्त्री स्वयं ही पती की चीता पर बैठकर खुद को भस्म करले! और बहुतेक यह भी संभव हैं की कुछ समाजिक लोगों ने ही अपनी बहु-बेटियों को मुगलों कि प्रताडनाओ से बचाने हेतु यह मार्ग अपनाया हो। क्या यह भी संभव नहीं कि माता-बहनों कि तिल-तिल होती अस्मिता देख समाज ने ही स्त्री जन्म को नकारना शुरू कर दिया हो! लेकिन पुर्व इतिहासकारों केवल यह साबित करने के लिये एसी प्रथाओं का उल्लेख किया कि नई पढ़ी जब इतिहास पढें तो वे अपने पुरखो के त्याग व बलिदानों पर गर्व करने के बजाय शर्म महसुस करे और यह सोच बेठे कि हमारी संस्कृती में ही खोट हैं। हमारा पाठ्य-इतिहास पुर्व इतिहासकारों कि भारतीय संस्कृती के प्रती एक नकारात्मक सोच को दिखाता हैं। आज जरूरत हैं इतिहास में जोड़ी एसी कुरीतीयों पर पुनः शोध की जिससे वास्तविकता सामने आये व हमारी सभ्यता-संस्कृती पर उठाये गये सवालों को विराम मिल सकें।
कृषि व गो-पालन
भले ही कृषि व गो-पालन को दुनियाँ मात्र एक व्यवसाय कि दृष्टि से देखती हो किंतु भारतीय जीवन पद्धति मे यह हमारी संस्कृती का हिस्सा हैं। बगैर कृषि व गो-सेवा के ना तो हमारी संस्कृती और ना ही भारतवर्ष का को उचेत्य हैं। भारत विश्व में अत्यधिक घनी आबादी वाला देश होते हुए भी गर आजतक आत्मनिर्भरता से खडा हैं तो इसका एक मात्र श्रेय कृषि व गो-पालन संस्कृती को जाता हैं। हमारी अनेकों सांस्कृतिक पर्व भी कृषि व गो पुजा से ही जुड़े हुए हैं।
स्वतंत्र भारत में भी प्रशासन द्वारा अब तक की जो व्यवस्था बनाई गई उनसे कृषि व गोपालन को ना तो उचित लाभ मिला और ना ही उचित सम्मान। यहाँ तक की अब तक की हमारी आधुनिक शिक्षा पद्धति में भी कृषि व गोपालन के महत्व सिखाने से उपेक्षित रख दिया गया। गो व कृषी संस्कृती पर अशिक्षित व पीछडे वर्ग की छाप लगाकर पेश किया जाता रहा। एसी शिक्षा पद्धति बनाई गई जिसे युवा जितना अधिक ग्रहण करेंगे वे इनसे दुर हो जाएंगे। यहीं वजह हैं कि पढ़-लिखकर खुद को सभ्य समझने वाला समाज आज कृषि व गोपालन से खुद को अलग कर लेता हैं। स्थिति आज यहाँ तक आगई हैं कि जो युवा अपना व्यवसाय कृषि-गोपालन से जुड़ा हुवा बता दे तो कोई पिता एसे युवा से अपनी बेटी को ना ही ब्याहने की सोचेगा और ना ही कोई पढ़ी-लिखी कन्या कभी एसा वर चाहेगी! जब कि एक कृषि व गोपालन पालन से जुड़ा व्यक्ती अपना जीवन स्वतंत्र रूप से निर्वाह करने में सक्षम होगा और तनख्वाह रूपी व्यक्ती भले ही कितनी भी तनख्वाह महीने उठा ले किंतु जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा पराई सेवा में ही गुजारेगा।
कृषि व गोपालन के प्रती एसी उपेक्षित मानसिकता हमें गर्क की और ले जा रहीं हैं। इस तरह से हम स्वावलंबी से परालंबी बनते जा रहे हैं। जहाँ कृषि व गोपालन हमारे देश को विश्व की किसी भी तरह की मंदी से बचाये रख सकते हैं वहीं एक हल्की सी मंदी भी उद्योग व नोकरीयों को बहा ले जा सकती हैं।
हमें यह भली-भाँति समझ लेने कि आवश्यकता हैं कि भारत कोई भी, कितनी ही बड़ी उन्नति को हासिल भले ही करले लेकिन देशवासियों का पालन बगैर कृषि व गोपालन के विस्तार के नहीं संभव हो सकता। कृषि व गोपालन के बगैर देश की कोई भी प्रगति मात्र एक वह निराधार ईमारत होगी जो कभी-भी जर-जरा के ढह सकती हैं।
आज जिस तरह से हमने पाश्चात्य संस्कृती को आधुनिकरण का स्वरूप मान लिया हैं वह हमारी संस्कृती के लिये विष समान हैं। इस तरह आज हम स्वतंत्र हो कर भी एक मानसिक गुलामी में जकडते जा रहे। पाश्चात्य संस्कृती के चलन ने हमारे स्वाभिमानी सोच को बेहद निचले स्तर तक गीरा दिया हैं। पाश्चात्य संस्कृती के चलन ने एक तरफ विदेशों के गैर जरूरती उत्पादों को हमारे दिनचर्या से जोड़ कर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को कमजोर किया हैं वहीं हमारे घरेलु उत्पादों का भी घला घौटा हैं। आज भी सबसे बड़ी दुखद स्थिती यह हैं कि इसका सबसे बडा जिम्मेदार हमारी जनसँख्या का वह हिस्सा हैं जो स्वयं को सभ्य व सुशिक्षित मानता हैं।