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राष्ट्र के प्रती जागरूकता

Posted on May 20, 2017 By admin No Comments on राष्ट्र के प्रती जागरूकता

राष्ट्र के रक्षक

आज किसी से भी यह सवाल किया जाये कि देश रक्षा कौन करता करता हैं तो उसका सिधा व अग्रीण उत्तर यहीं मिलेगा कि देश की सेना। लेकिन पुर्व कि यह वास्तविकता अब अर्धसत्य में बदल चुकी हैं। सेना कि भूमिका युद्ध में मात्र तब अहम हो सकती हैं जब प्रत्यक्ष युद्ध लडा जाये। आज विश्व में परिस्थितीयों ने जिस तरह कि करवटे ली हैं प्रत्यक्ष रूप के युद्ध कि संभावना खत्म होती जा रहीं। एसा नहीं कि युद्ध पर विराम लग गया हैं, युद्ध आज भी जारी हैं और वह भी पहले से घातक!

आज युद्ध पहले कूटनीतिक व अनेकों प्रकार के षडयंत्रों से लडा जाता हैं। युद्ध के रणभूमि तक पहुंचने से पहले ही यह लगभग तय होता हैं कि जित किस की होनी हैं। अर्थात युद्ध छेड़ने से पहले हि द्वंदी को पूर्णतया परास्त कर देना। इस प्रकार का अप्रत्यक्ष युद्ध में देेश को पहले आर्थिक व राजनीतिक रूप से पंगु बना दिया जाता हैं। विरोधी देश में समाजिक असंतोष, सांस्कृतिक व धार्मिक भावना पर प्रहार कर लोगों का देश के प्रती लगाव-व-विश्वास ही खत्म कर दिया जाता हैं। देश को इस तरह बंजर कर दिया जाता हैं कि फिर वहाँ ना कोई देशभक्त जन्मे ना ही कोई क्रांतिकारी। प्रत्यक्ष रूप से लडे युद्ध में हार कर भी एक देश कुछ वर्षों में फिर से खडा हो सकता हैं लेकिन एसे अप्रत्यक्ष रूप से लडे जा रहे युद्ध में वह देश जिसकी सांस्कृतिक हस्ती ही मिटा दी गई हो, देश के लोगों को उनके इतिहास व मान्यताओं के प्रती पूर्णतया भ्रमीत कर निराशा कि गर्क में ढकेल दिया हो, एसे देश को फिर से उठने में सदीयाँ गुजर जाएगी और यह भी संभव हैं कि फिर उठ ही नहीं पाये।

एसी स्थितियों को समझने के बाद “मात्र” सेना को देश का रक्षक माना नहीं जा सकता लेकिन देश कि रक्षा कि जिम्मेदारी किसी के कंधा पर तो होगी ही, फिर वो कंधा किसका हैं? भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सेना की डोर प्रशासन के हाथों होती हैं, प्रशासन राजनीतिक इच्छाशक्ति से चलता हैं और किस राजनैतिक इच्छाशक्ति के हाथों में सत्ता सौंपनी हैं यह जनता अपने मतों से तय करती हैं। इस तरह देश कि रक्षा का भार यदि किसी के कंधा पर आता हैं वो मात्र जनता का ही कंधा हैं। इस तरह के अप्रत्यक्ष युद्ध में सेना कि भूमिका या तो बेहद आंशिक रह जाती हैं या फिर विदेशी हाथों बिके हुए राजनीतिक सत्ताधारियों का खिलौना बना दी जाती हैं। तात्पर्य यह बिल्कुल ही नहीं की इससे सेना के महत्व को कम आका जाये लेकिन हाँ यह जरूर हैं कि देशवासी अपनी जिम्मेदारी को समझ कर जागृत बने। विदेशियों के हाथों बिके राजनेताओं को पहचान कर जमीन पर रौंदे और देशभक्त नेताओं को मतदान के जरीये सत्ता सौंपे। सारांश यहीं एक लोकतांत्रिक देश के सुरक्षा जिम्मा जनता के हाथों रहता हैं जिसे निभाने के लिये जनता का जागृत होना अती आवश्यक हैं।

नकारात्मकता से मुक्ति

भारत एक गरीब देश हैं, साक्षरता की कमी हैं, भ्रष्टाचार चरम पर हैं, हर क्षेत्र में जातिवाद हैं….. एसे कइ नकारात्मक विचार हम हमेंशा से सुनते आ रहे। आज अधिकतर भारतीय एसे कथनों से पुरी तरह से सहमत ही होंगे क्यूँ की बडे़-बडे़ समाजसेवी व अर्थशास्त्री मिलकर एक सुर में हमें यहीं दोहराते आये हैं, हमारी पाठ्यपुस्तके भी हमें भारत के विषय में एसा ही कुछ चित्रण भी करती हैं।

तो क्या वाकई हमारे भारत की यहीं पहचान हैं?

क्या वास्तव में हम अपने भारत को पहचानते हैं?

एसी उपरोक्त बाते केवल उन्हें ही विचलित करेंगी जिन्होने अब तक भारत को मात्र नकारत्मक नजरिये से देखा हैं तथा एक भाग्यशाली भारत कि उनसे कोई पहचान ही नहीं। और यदि होगी तो एसे नकारात्मक मुद्दे उन्हे विचलित कर ही नहीं सकेंगे।

एक देश को गरीब तब कहाँ जा सकता हैं जिसके पास क्षमताऔं की कमी हो। भारत कि धरा सदा से ही एक सामर्थ्यवान भूमी रहीं हैं। प्रकृति ने सदा ही हमारी धरा पर अपनी कृपा बरसाई हैं। प्रकृति कि चारो ऋतुएं समयानुसार अनुसार भारत को लाभांवित करती हैं। इस तरह भारत-भूमी पुरी तरह से क्षमतावान रहीं हैं। भारत में मरुस्थल से लेकर बर्फ कि चादर लपेट वादीया भी खडी हैं। समुद्र तट से संपन्न देश कि गोदी में अनेकों नदीयाँ खेलती हैं। खेती से लेकर कारखाने तक सभी उद्योगों को आशय देने की क्षमता रखने वाला भारत कभी गरीब नहीं हो सकता। यहाँ कि जनता को गरीब होने को जबरन विवश किया गया हैं। विकास के नाम पर देश कि क्षमताओं को मात्र रौंदा जाता रहा हैं। देश के संसाधनों की लुट मचाई गई। लुटेरे देशवासीयों का हक छीनकर अपने खजाने भरते रहे। यह सिलसिला ना केवल आज़ादी के पुर्व बल्कि आज़ादी के पश्चात भी निरंतर चलता रहा और खुद कि लुटमारी को छुपाने के लिये देश के नाम पर गरीबी की मोहर लगा दी गई। वास्तव में तो भारत जैसे एक क्षमतावान देश को गरीब कहना देश कि क्षमताओं का अपमान करना होगा।

अशिक्षित भी उसे कहाँ जा सकता हैं जिनमें आदर-भाव की कमी हो, जिसे इंसानियत की पहचान नहीं, जिसके पास अपनी कोई सभ्यता ही नहीं। भारत के किसी भी गाँव में यदि हम चले जाये वहाँ के भोले-भाले किसान-मजदुर का आदर-सत्कार व सेवाभक्ति हमें वास्तव में “हरी दर्शन” करवा देते हैं उनमें मिलने वाला दया भाव इंसानियत की वास्तविक पहचान करा देता हैं। भारत के प्रत्येक गाँव अपनी विशेष सभ्यता से आज भी अलग पहचान रखते हैं। भारतवासियों की एसी सादगी भरी सभ्यता व मानवता हमारी संस्कृती की देन हैं और जिससे आज का शिक्षित वर्ग भी वंचित होता जा रहा। भारतीय संस्कृती में स्वयं ही वो क्षमता हैं जो भारतीयों के जिवन को मान-सम्मान, सभ्य व सांस्कृतिक दिशा में मोड़ देतीं हैं। धार्मिक ज्ञान शास्त्र-शस्त्र कि पुर्ती कर देता हैं। आज कि शिक्षा मात्र कागजी प्रमाणपत्र आधारित रह गई हैं जो इंसान को पैसे कमाने वाली मशीन तो बना सकती हैं लेकिन इंसान को इंसान नहीं बना सकती। हमारी आज कि किताबी शिक्षा धर्म व सांस्कृतिक ज्ञान के बगैर पुरी तरह निर्जीव हैं। यह वह शिक्षा हैं जो हमें शिक्षित तो करती हैं किंतु अपनी ही सभ्यता-संस्कृती से कौसो दुर कर देतीं हैं। एक सुसंस्कृत व धर्म ज्ञाता अशिक्षित होते हुए भी वह उस पढें लिखे से कइ गुना अधिक श्रेष्ठ हैं जो शिक्षित हो कर स्वयं को देश की संस्कृती से ही अलग कर लेता हैं। यह एक कटु सत्य हैं कि गाँवों में रहने वाला एक गरीब आज भी अपने मान-सम्मान व स्वाभिमान के लिये लड सकता हैं किंतु शहर का पढ़ा-लिखा स्वावलंबी-स्वाभिमान जैसी बातों को मात्र भावनाओ कि मानसिकता समझता हैं। सिधा प्रश्न यह हैं कि क्या हमारी शिक्षा देश, धर्म व संस्कृती के लिये मर-मिटने वाले रक्षक पैदा कर सकती हैं? अगर नहीं, तो एक सुसंस्कृत व सभ्य धर्मवान अशिक्षित हो कर असभ्य शिक्षित से कहीं बेहतर हैं क्यूँ कि अंतत: वहीं अपनी मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने प्रथम पंक्ती में खडा मिलेगा। जब तक हमारी शिक्षा गो-कृषि संस्कृति के प्रति अपनत्व जगाने के अनुकूल नहीं हो जाती तब तक देश की अशिक्षा वास्तव में चिंता जनक नहीं। हमारी कोशिश यह जरूर होनी चाहिए कि हम गांवों में बसने वाली सरल व सादगी पूर्ण जिवन को फलने-फुलने वाली व्यवस्था दे जिससे उनका शोषण ना हो सके। वास्तविक भारत की ना केवल पहचान गांवों से ही हैं बल्कि भारत की वास्तविक शक्ति भी गांवों के ही दमपर आधारीत हैं।

भारत आज भ्रष्टाचार की जकड़ में अवश्य हैं किंतु भारत के लोग भ्रष्ट हैं यह कहना पूर्णतया गलत हैं। यह भ्रष्टाचार कहाँ से पनपा व किस तरह भारत बनेगा भ्रष्टाचार-मुक्त, इसे समझने के लिये पहले भ्ष्टाचार को समझना आवश्यक हैं। प्राचीन भारत पर जितने भी पराक्रमी राजा-महाराजाओं ने राज किया, उनकी दानवीरता के किस्से आज भी हमें सुनने को मिलते हैं। वे एसे शासक थे जो जनता को कुछ अर्पण करने हेतु राज करते थे। हमारे प्राचीन शासक प्रत्येक विषय पर कुल व राज्य के ऋषि-मुनियों, संतो के परामर्श को सर्वोपरि रखते हुए धर्मानुसार राज्य का संचालन सेवा-भाव से करते थे। शासक के भाव अर्पण के होने से जनता के आचरण में भी सेवाभाव बना रहता था। जब से जनता को शासक ही लुटेरे व स्वार्थी मिलने लगे जनता का सेवाभाव भी दम तोड़ने लगा। आज स्थिती यह हैं की हमें हर-तरफ भ्रष्टाचार नजर आता हैं। सारांश यहीं हैं कि भ्रष्टाचार की धारा सदैव उपर से निचे की और बहती हैं। इसे इस तरह भी समझा जा सकता हैं कि एक दफ़्तर के सभी कर्मचारी तब तक भ्रष्ट नहीं हो सकते जब तक की उस दफ्तर के संचालक वरिष्ठ अधिकारी भ्रष्ट अथवा कामचोर ना हो। जब संपूर्ण शासन पर ही यदि भ्रष्ट विराजमान हो जाये तो वहाँ कि जनता भी भ्रष्ट होने को मजबूर होगी।

हम जब भी जाती पर बढ़ते द्वेष वाले भारत पर चर्चा करते हैं तो हम केवल उसी भारतीय विकृत समाज को उदाहरण बनाते हैं जो हमे गुलामी काल से मिला। लेकिन हम उस भारत को पूर्णतया भुला बैठे हैं जो भारत गुलामी काल के पूर्व था। एक सभ्य, समृद्ध व सुसंस्कृत भारत, ऐसा भारत जिसमें जाती-वर्ण तो लगभग आज ही की तरह थे किंतु द्वेष नाम का दूषित वातावरण ना था। भारतीय गाँवों में भिन्न-भिन्न प्रकार के जातीवर्ग देखने को मिलते हैं जो आपसी समन्वय में सदीयों से रहते आ रहे थे। ना तो उनमें कभी भेद-भाव रहा और ना ही किसी ने एक दुसरे पर हावी होने कि कोशिश की। गाँव पर संकट कि स्थितियों में भी संपूर्ण गाँव की एकता उभरकर आती थी। किंतु विदेशी शासकों के लिये जब एसी एकता खतरा बनने लगी तो जातीवाद का बीज उन्होंने बोया। उनकी नीति सदैव ही ‘फुट डालो राज करों’ की रहीं। अब उन शासकों का शासन तो चला गया लेकिन उनका बोया जातीवाद का जहर आज भी यथावत असर कर रहा। आज़ादी के बाद इस जातीवाद को उठा फेंकने की जगह हमारे अपनों ने ही राजकरण लाभ के लिये पोषित किया। हम हमारी जागृकता से इस जातीवाद को मिटा सकते हैं। विचारणीय विषय यह हैं कि जाती कि पहचान व गर्व बना रहना चाहिये किंतु जाती-मतभेद जो विषम परिस्थितीयों में पनपते गये, मिटाये जाने चाहिये और यह शतप्रतिशत संभव हैं।

अखंड भारत

हर भारतीय के लिये अखंड भारत का इतिहास जानना बेहद जरूरी हैं। भारत गुलामी के दर्द से तो फिर भी आसानी से उभर जाता किंतु खंडीत होने का घाव कभि ना भरने लायक मिला। भारत के जितने भी खंड बने वे भारत लिये आज भी शत्रुता पाले बैठे हैं। भारत विरोधी गतिविधियां लगातार उनकी अंदरूनी राजनीतिक का हिस्सा रहीं हैं। आज भी एसी शक्तियाँ पूर्णतः कार्यशील हैं जो भारत को भविष्य में और भी खंडीत करने का स्वप्न संजोए बैठी हैं। यदि एसी शक्तियों से हम भारतीय अनजान रहे तो हम अपने मातृभूमि कि रक्षा नहीं कर सकेंगे।

गुलामी के कारण

भारत ने अबतक दो गुलामी के काल देखें हैं – मुगल काल व अंग्रेज़ी साम्राज्य। दोनों ही कालों ने भारत को सदीयों के लिये गर्क में ढकेल दिया। इन लुटेरों ने देश कि अपार संपत्तियों को लुटने के साथ-साथ देश के वैचारिक शक्ति में विष घोल दिया। आपसी मतभेद जन्मे जो समय के साथ-साथ बढ़ते चले गये। विशाल भारतभुमी के अखंड भारत को ना केवल खंड-खंड मे बाट दिया बल्कि जितने भी खंड भारत से अलग बने वे भारत के विपरीत अथवा विरोधी बन कर उभरते चले गये। भारत गुलाम बना था यह एक इतिहास हैं किंतु यह समझना बेहद आवश्यक हैं कि इसका कारण भारतीयों की मूर्खता किसी भी रूप में नही थी। भारत गुलाम बना था भारतीयों के सरल स्वभाव व अतिक्रमणकारीयों के धोखबाजी व हैवानियत के चलते। भारतीयों में अत्यधीक भोलपन व उदारवादी आचरण ने धुर्तों को अवसर दिया जिससे कि वे अपना साम्राज्य स्थापित कर सके। यद्यपि एसा आचरण हमारे सभ्य समाज कि संस्कृति का ही वरदान थी लेकिन अकिक्रमणकारीयों के षडयंत्रो के चलते अभीषाप बन गई। पूर्व में अधिकांश युद्ध मात्र राजाओं व सेना द्वारा मर्यादित तरीकों से युद्धभूमी में लड़े जाते थे जिससे आम जनता अंशमात्र प्रभावित होती थी। कि मुगल बादशाहों ने रणभूमी के युद्ध को गावों व बस्तियों तक पहुंचाया। ना केवल राजाओं को प्रास्त किया बल्कि अमर्यादित तरीकों से संपूर्ण प्रजा को अपने अत्याचार का निशाना बनाया जिससे कि वे अपना खौफ यहाँ के लोगों के मन में बसा सके। इस तरीकों के युद्ध के लिये ना ही भारतीय राजवंश तैयार थे और ना ही यहाँ कि आम प्रजा।

भारत विरोधी भारतभुमी से विभाजित खंड

वे खंड जो विदेशी धर्म आधारित बने वे आज भारत के कार्यक्षेत्र में बगैर कोई हेसियत के आतंकवाद कि चुनौती खड़ी करते जा रहे। जिस धार्मिक कट्टरता के चलते पहले भारत के टुकड़े किये गये उसी आधार पर वे भारत को और भी कइ खंडों में बाटने का षडयंत्र रचने में लगे हुए हैं। इन खंडो में शेष बचे भारतीय मूल के लोगों का वहाँ के कट्टरपंथियों ने जिवन नर्क बना रखा हैं। स्थिति यह हैं कि इन खंडो से भारतीय मूल के लोग या तो पलायन कर भारत व अन्य सुरक्षित देशों में शरणार्थी बन रहे या फिर धर्म परिवर्तन को मजबूर किये जा रहे अन्यथा कत्लेआम व वहशीपन का शिकार बनना ही इनका नसीब हो चुका हैं।

विदेशी ताकतें

भारत से विभाजित हुए खंड आज भी अती पिछडे देशो कि श्रेणी में आते हैं। उनकी आर्थिक व्यवस्था पूर्णतः खोखली हो चुकी हैं। लेकिन फिर यदि वे भारत के विरूद्ध मजबुती से खडे हो रहे हैं तो उसके पीछे भारत विरोधी विकसीत देशो का मिल रहा समर्थन हैं। यह स्वयं को अती विकसीत मानने वाले तथा संकीर्ण मानसिकता से भरे वे गरीब देश हैं जो भारतीय बाज़ारों पर कब्जा जमाकर बैठे हैं व भारत के विकास में खुद का वर्चस्व खो देने से डरते हैं। यह विदेशी ताकतें अच्छी तरह से जानती हैं यदि भारत के लोग जागृत हो गये तो भारतीय बाज़ारों में फैला उनका व्यापार जीस पर आज उनके देश कि अर्थव्यवस्था आधारित हो चुकी हैं, चरमरा कर गिर पड़ेगी। बात मात्र वर्चस्व की नहीं उन्होंने भारत के सदीयों पहले के अति प्राचीन ज्ञान को भी हथियाकर स्वयं का एकाधिकार जमाने की पुरी कोशिश कि हैं। वह ज्ञान जिसे वे भारत में फैलने से रोकते हैं और स्वयं के देश में उस पर बडे़-बडे़ शोध करते हैं।

विदेशी धर्मों का अतिक्रमण

विदेशी शासकों से मुक्ति पाने के उपरांत भी आज भारत विदेशी ताकतों के षडयंत्रों से उभर ना सका। जहाँ एक और इन्होंने अपने शासन काल में बडे़ पैमाने पर भारतीयों के धर्मांतरण करवाये वहीं भारत छोड़ने के पश्चात आज भी धार्मिक कट्टरता को पौषीत किये जा रहे हैं। भारत आज भी विदेशी धर्माताओं के बढ़ते वर्चस्व से बुरी तरह झुँझ रहा हैं। ये विदेशी धर्माता सरे-आम धर्मांतरण करवाकर देश में धार्मिक अनुपात को अपने पक्ष में करने के की कोशिश में पुरी तरह से कार्यरत हैं। इस कार्य को अंजाम देने के लिये इन्हे बडे़ पैमाने पर विदेशों से आर्थिक सहायता निरंतर मिलती रहती हैं। ये राष्ट्रविरोधी विदेशी धर्म के ठेकेदार पड़ोसी मुल्कों से भी गैर-कानूनी रूप से घुसपैठ कर आये अपने सहधर्मी लोगों की मदद कर उन्हें भारत में बसाने कि पुरा षडयंत्र रचते जा रहे। इस वजह से भारत के कइ प्रदेशों में धर्मानुपात लगातार बिगड़ता जा रहा हैं जिससे वहाँ रह रहे भूमी पुत्रों का जिवन पुरी तरह संघर्षमयी व अंधकारमय होता जा रहा। इन षड्यंत्रकारीयों को यहाँ कार्यरत कइ तरह के गैरसरकारी संगठन व अपने व्यापार फैला रखे विदेशी उद्योग जगत का भी आर्थीक सहयोग मिलता रहता हैं। यहाँ के टुकड़ों पर पल रहे ये विदेशी धर्माता यह भी सुनिश्चित करते हैं की भारत पुनः अपनी भारतीयता को प्राप्त ना कर सकें। इसका एक उदाहरण गो-हत्या पाबंदी पर इनका जम कर विरोध हमारे सामने हैं जिसके चलते गो को अपनी माता कहने वाले भारत में आज भी पूर्णतया पाबंदी संभव ना हो सकी। एसे फरेबी व भारत विरोधी धर्माताऔ, संगठन व विदेशी उत्पाद विक्रेताओं के पहचान कर हमें सजग सभी को जागृत करने की बेहद आवश्यकता हैं अन्यथा भारत का किसी भी रूप में कभी सुरक्षित रहना संभव नहीं।

भारत का धर्मनिर्पेक्ष

आज भारतीयता से अज्ञान भारतीय मुल के ही समाजसेवी, राजनीतिज्ञ व संचार तंत्र के ठेकेदार हम भारतीयों को रात-दिन जो धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने कि कोशिश मे जुटे दिखते हैं, इनकी मुर्खता पर बड़ा तरस आता हैं। या तो ये भारतीयता से पुरी तरह अंजान हैं अथवा पैसे व प्रतिष्ठा कमाने कि अंधाधूँध में ये भारतीयता के सबसे बडे़ दुश्मन बन बैठे हैं। भारत “वसुदेव कुटंबकम्” कि परम्परा को निर्वाह करने वाला संभवतः एक मात्र देश हैं जिसके अनुसार संपूर्ण विश्व एक ही परिवार का हिस्सा हैं। विश्व में शायद ही एसा कोई दुसरा देश होगा जिसमें आज तक मात्र बहुसंख्यक ने ही पीडा सही और कभी किसी भी धर्म विशेष के विरूद्ध कभी अमानवीय व्यवहार कि पहल नहीं किया। भारत प्राकृतिक रूप से स्वभाव में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र रहा हैं। लेकिन कुछ राष्ट्रविरोधी ताकतें “धर्मनीरपेक्षता” कि आड में विदेशी धर्मों के तुष्टिकरण पर उतर आये हैं ये। ये दुर्विचारी आयुर्वेद, योग व संस्कृत भाषा जैसी भारतीय धरोहर को भी सांप्रदायिक सिद्ध कर भारत से उसकी पहचान को छीनना चाहते हैं। हद तो तब हो जाती हैं जब इनके लिये राष्ट्रध्वज को नमन, वंदेमातरम् व भारत माता कि जय जैसे उद्घोष को भी सांप्रदायिक बताकर विरोध पर उतर आते हैं। ये वो मंत्र हैं जिसकी शक्ती स्वरूप बच्चा-बच्चा देश कि आज़ादी के लिये मर उठने को निकल पडा था। भारतीयता या राष्ट्रभक्ति का विरोध करता हर चेहरा अपनी संकुचीत या विषैली मानसिकता को खुलकर उजागर करता हैं और हर-भारतीयोंं को इन्हे पहचानने की समझ अवश्य होनी चाहिये।

विदेशी कंपनियों का साम्राज्य

आज भारतीय बाजार अधिकतर विदेशी उत्पादों से पूर्णतया लबालब हो चुका हैं। हमारे दिनचर्या कि वस्तुओं से लेकर औषधियों तक, विद्युत उपकरणों से लेकर साज-सज्जा के सामान तक हर तरह विदेशी कंपनियों ने अपने उत्पादों का एक साम्राज्य स्थापित कर लीया हैं। हम जाने-अनजाने में हर दिन हमारी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इन विदेशी कंपनियों को हर रोज भेंट चढाते हैं। इनमे से कइ विदेशी उत्पादों के हम बुरी तरह से आदि हो चुके हैं। विदेशी उत्पादों का साम्राज्य इज कद्र भारतीय बाज़ारों पर छाया हुवा हैं कि आप चाह कर भी यदि पूर्णतया स्वदेशी उत्पाद खरीदना चाहोगे तो भी हमें अनेकों बार विवशता में विदेशी उत्पाद ही लेना पड जायेगा क्यूँ की या तो स्वदेशी मिलेगा ही नहीं या हमें उसे सहजता से अपना नहीं पायेंगे। इस तरह हम भारतीय एक अनजानी मानसिक गुलामी में जकडते जा रहे जहाँ कहने को तो हम आज़ाद होंगे किंतु हमारी मेहनत की कमाई हम इन विदेशी कंपनियों को भेंट चढाते रहेंगे।

बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती, इसके काफी गम्भीर परिणाम हम भुगत रहे व भविष्य की स्थिती और भी विषैली हो सकती हैं…

– विदेशी कंपनियों ने ना केवल भारतीय बाजार पर साम्राज्य स्थापित कर लिया हैं बल्कि कइ तरह से ये भारतीय राजनीति को भी अपने अनुरूप ढालने में जुटी हुई हैं जिससे भारत सरकार पर सदा इनका वर्चस्व बना रहे

– कइ विदेशी उत्पादों में रसायनिक तत्वों की अधिक मात्रा से या तो विषैले होते हैं या भारतीयों के स्वास्थ के अनुरूप नहीं होते जिनसे अनेकों प्रकार के रोग जन्म ले रहे

– कइ प्रांतो में किसानों कि उपजाऊ जमीन हथियाकर अपने उद्योग फैलाते हैं तथा आस-पास के प्राकृतिक संसाधनों पर एका अधिकार जमालेते हैं जिनसे प्राकृतिक समन्वय पुरी तरह ध्वस्त होने के कगार पर हैं

– विदेशी उत्पादों के चलते भारतीय घरेलु उद्योग पुरी तरह से दम तोड रहे विदेशी पूँजी के बल पर अपने उत्पादों का ये जमकर प्रचार करते हैं। देश के घरेलु उद्योगपतियों द्वारा एसा करना संभव नहीं हो पाता और वे अपने उत्पादों कि मांग खडी नहीं कर पाते। साथ ही विदेशी कंपनियाँ उत्पाद बडे़ पैमाने पर करती हैं जिससे उनकी लागत छोटे निर्माताओं से औसतन मुल्य में काफी कमी हो जाती हैं। इस तरह लघु उद्योगों के उत्पाद विदेशी उत्पादों कि तुलना में महंगे हो जाते हैं तथा प्रतिस्पर्धा संभव नहीं हो पाती। परिणामतः या तो घरेलु उत्पाद दम तोड़ देते हैं या फिर अपने उत्पादों का स्वामित्व विदेशी व्यापारियों के हाथों बेचने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसे भी के उदाहरण हैं जहाँ भारतीय उत्पादों से मिली कड़ी प्रतिस्पर्धा से निजात पाने के लिए विदेशी व्यापारी कई गुना अधीक किमत दे कर भारतीय उत्पादों का स्वामित्व हासिल कर लेती हैं ताकि भारतीय बाजार पर उनका एक मात्र अधिकार चलता रहे। प्रतिदिन भारतीय बाजार से ये विदेशी कंपनियाँ अरबों-खरबों का कारोबार कर भारतीय मुद्रा को क्षति पहुंचाती हैं। घरेलु उत्पादों को हो रहीं हानी व भारतीय मुद्रा अवमूल्यन देश कि अर्थ व्यवस्था के लिये असुरक्षित भविष्य का संकेत दे रहीं हैं।

स्वदेशी मंत्र

विदेशी कंपनियों के बढ़ते वर्चस्व को यदि लगाम लगानी हैं तो जनता के हाथ मे सिधा उपाय स्वदेशी उत्पादों को अपना कर विदेशी उत्पादों का पुरी तरह बहिष्कार करना होगा। स्वदेशी मंत्र में बहोत बड़ी शक्ती हैं। यह बड़ी ही हैरान कर देने वाली बात हैं कि जिन्होने महात्मा गांधी को आज़ादी को महानायक बताया व आज तक गांधी नाम पर राजनिति कर देश पर राज करते रहे उनके ही राज में विदेशी उत्पादों ने भारतीय बजारों पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। कहने को तो वे महात्मा गांधी को स्वदेशी मूलमंत्र का जनक बताते हैं लेकिन उनके ही नाम का सहारा लेकर राज करने वालों ने स्वदेशी मंत्र को मिटाने में कोई कसर नहीं छोडी। स्वदेशी उत्पाद, जो पूर्णतया भारत में निर्मीत हो और जो भारतीयों द्वारा बनाये गये हो। स्वदेशी उत्पाद हर तरह से देश कि आर्थिक दशा पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। स्वदेशी उत्पादों कि खरीदी से हमारी अपनी सोच पर भी गहरा असर पढता हैं। एक विदेशी उत्पाद कि खरीदी में हमारी सोच जो मात्र उपभोग की होती हैं वहीं स्वदेशी उत्पाद कि खरीदी उपभोग के साथ-साथ हमारी राष्ट्र के प्रती चेतना को भी मजबुत करती हैं व हमारे आचरण को स्वाभिमान से परिपूर्ण करती हैं। स्वदेशी उत्पादों कि खरीदी से देश कि मुद्रा देश में ही रहती हैं जिससे भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन नहीं हो पाता। स्वदेशी उत्पाद घरेलु व लघु उद्योगों को भी सहायक होते हैं व रोजगार भी बढ़ते हैं। स्वदेशी उत्पादों की शुद्धता इसीलिये विश्वसनीय हैं क्यूँ की स्वदेशी उत्पादको के निर्माता भारतीय होते हैं व उन्हें यह डर होता हैं की आदि उत्पाद हानिकारक हुए तो उन्हें धर-दबोचा जा सकता हैं लेकिन विदेश कंपनियों के सुत्रधार विदेशों में होने व आर्थिक रूप से अत्यधिक प्रभावशाली होने के कारण उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं होता व वे अपने उत्पादों को लज्जेदार बनाने के लिये हमारी सेहत से बड़ा खिलवाड़ करते हैं। तरह-तरह के केमिकल व जानवरों कि चर्बी से निकाले गये लवण उत्पादों में मिलाकर शाकाहारी के नाम पर बेचते हैं। हम भले ही देश कि सेवा किसी और रूप में कर सकें या नहीं, किंतु स्वदेशी मंत्र को अपना कर ना केवल हम देश को समृद्ध बना सकेंगे साथ-ही-साथ अपने परिवार के सेहत को भी सुरक्षित रख सकेंगे। स्वदेशी मंत्र हमारे और हमारे देश को स्वाभिमान कि दिशा में ले जाने के लिये एक रामबाण स्वरूप हैं।

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