कौन हैं रक्षक ?
वैसे तो भारत देश में लोकतंत्र कि स्थापना हुए साठ से भी अधिक वर्ष बीत चुके हैं लेकिन आज भी यदि देश के किसी भी नागरिक से यह प्रश्न किया जाये कि देश कि सुरक्षा का जिम्मा किस पर हैं तो उसकी राय अधिकतर यही मिलती हैं कि देश कि सुरक्षा का जिम्मा एक मात्र हमारे सेना के जवानों के हाथों में हैं। लेकिन सवाल यह भी हैं कि हमारे अधिकांश लोगों कि यह राय कहाँ तक सही हैं!
देश कि सुरक्षा से जुड़ा यह मात्र एक प्रश्न नहीं हैं। इसका सटीक उत्तर ही देश कि वास्तविक ताकत हैं। क्यूँ कि यदि देश कि सुरक्षा के असली कर्णधार निर्धारित नहीं होंगे या निर्धारित करने में हम से चुक हो गई तो इसके गंभीर परिणाम पूर्ण भारत वर्ष को भुगतना होगा और शायद यहीं कारण हैं कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद आज भी देश कि सुरक्षा पुरी तरह हाशिए पर चलती रहीं हैं। हम अधिकतर लोगों ने जिन कंधों को देश कि सुरक्षा का कर्णधार मान रखा हैं वह वास्तविकता से बिल्कुल परे हैं। यहाँ कहने का तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं कि हमारी सेना किसी भी रूप में कमजोर हैं या उनके शौर्य पर कोई संदेह हैं, लेकिन हमें यह भी समझना जरूरी हैं कि देश कि सीमा पर खडा प्रहरी हमारे जन-तंत्र का ही एक हिस्सा हैं व जन-प्रतिनिधियों के आदेशों से पुरी तरह बंधा हुवा हैं। एसी परिस्थिति में यदि उसे आदेशों से बांध दिया गया तो सोचीये सेना के जीन कंधों पर अधिकतर लोग देश कि सुरक्षा का ज़िम्मा देखते हैं वही जवान देश तो छोड़ो स्वयं कि सुरक्षा करने के लिये भी सक्षम नहीं रह पायेगा। यह मात्र कल्पना नहीं, एक वास्तविकता हैं। ऐसी परिस्थितीयों को देश ने कइ बार झेला हैं जब सिमा पर खडे हमारे विर सिपाही को ना केवल बेवजह बलिदान होना पडा बल्कि दुश्मन देश ने हमारी पराक्रमी सेना का भद्दा मजाक बनाया। इन तथ्यों के बावजूद हम भारतीयों का देश कि सुरक्षा के लिए मात्र सेना को उत्तरदायित्व समझना कहाँ तक सही हैं! क्या इस अर्धसत्य पर हमें हमारे विचार शुद्ध नहीं करना चाहिये?
अब कल्पना किजिये एक एसे राज्य कि जहाँ राजा तो निर्धारित हैं, उसे सैकडों बार बताया भी जाता हैं कि वह राजा हैं किंतु उस राजा को उसके राज्य के वास्तविक हालातों से परिचित नहीं कराया जाता और ना ही वह राजा कभी कोशिश करता हैं कि अपने राज्य कि दशा पर नजर डाले। वह मात्र उन्ही आधारों पर फ़ैसले करता हैं जो बनावटी तत्थ उसके सामने प्रस्तुत किये जाते हैं। यह राजा मात्र अपनी पटरानी व राजकुमारो सहित निजी जीवन में मग्न रहकर संतुष्टि को प्राप्त कर लेता हैं। प्रश्न यह उठता हैं कि क्या इस तरह का राजा अपने राज्य कि प्रजा के विषय में कोई कारगर निर्णय कर सकेगा? क्या एसा राजा अपने राज्य व अपनी प्रजा को सुरक्षित रख सकेगा? जाहिर हैं कि इन सवालों का उत्तर होगा – नहीं।
क्या राजा का यह उत्तर दायित्व नहीं बनता की वह अपने राज्य कि प्रत्येक समस्याओं को गंभीरता से लेकर उपयुक्त समाधान निकाले? क्या उस राजा को नहीं चाहिये कि वह अपने इर्द-गिर्द बैठने वाले ऐसे मंत्रियों का चुनाव करे जो राज्य कि वास्तविक स्थितियों कि समय समय पर समीक्षा कर आगाह करें ? क्या उस राजा को नहीं चाहिये कि वह अपने राज्य के छिपे हुए बहरूपियों व उनके षडयंत्रों को पहचान कर उनसे अपने राज्य कि सुरक्षा सुनिश्चित करे? अवश्य ही करना चाहिये अन्यथा वह राजा कहलाने योग्य नहीं। इस तरह तो उसका राजा बने रहना भी राज्य के लिये स्वयं एक अभिशाप होगा। इन विचारों से लगभग सभी सहमत होंगे क्यूँ कि इन विचारों में सच्चाई हैं।
अभी हमने जिस राज्य कि कल्पना की वह मात्र कल्पना नहीं एक वास्तविकता हैं। यह दुर्भाग्य पूर्ण राज्य भारत देश ही हैं जिसके निर्धारित राजा और कोई नहीं हम स्वयं हैं। वे हम ही हैं जिसे देश के संविधान ने राजा निर्धारित किया हैं। हमें लोकतंत्र के विशेषज्ञ हमेशा याद दिलाते रहते हैं कि हम इस देश के वास्तविक राजा हैं। वे हम हैं जो सरकार के मंत्रियों का चुनाव करते हैं और यह भी वास्तविकता हैं कि वे हम ही हैं जो हमेशा अपनी जिम्मेदारियों को दूसरों के सिर मढ़ कर बडे़ ही आवेश में कहते हैं कि सरकार तो कुछ नहीं करती! हम देश कि वास्तविकता से पूर्णतया अनजान अपने निजी स्वार्थों को पूर्ण करने में व्यस्त हैं, हमें हमारा भ्रष्ट सचारतंत्र वास्तविकता छुपा कर कइ अनर्थ मुद्दों से बहलाता व भटकाता रहता हैं और हम भी पर्दे के पिछे कि सच्चाई समझने से दुर भागते हैं। क्या लोकतंत्र द्वारा निर्धारित एसा राजा अधुरे सत्य व अज्ञानता में अपने देश कि सुरक्षा करने में सक्षम हो सकता हैं?
जब भी देश कि सुरक्षा के उत्तराधिकारी का विषय निकलता हैं तो प्रमुखता से नाम हमारी सेना का निकलता हैं लेकिन हम में से शायद ही कोई यह भी सोचता हो कि देश कि सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सेना से कहीं ज्यादा हमारे अपने कंधों पर ही हैं! क्योंकि जब हम ऐसा मानने लग जाएंगे तो कई समस्या के लिये स्वयं को ही कटघरे मे खडा पायेंगे। सेना तो मात्र उन्ही दुश्मनों से लड़ सकती हैं जो सामने से हमला करते हैं और वह भी हमारे चुने हुए जन-प्रतिनिधि से आदेश मिलने के बाद। यदि जन-प्रतिनिधि को चुनते वक्त हम स्वयं ही किसी भ्रम में पल रहे हैं या हमें भ्रमित किया गया तो यह भी स्वाभाविक हैं कि हमारा चुना हुवा प्रतिनिधि कमजोर हो सकता हैं, भ्रष्ट-स्वार्थी या देशद्रोही हो सकता हैं या फिर विदेशियों के हाथों की कठपुतली भी हो सकता हैं। एसी परिस्थिति में हमारी अज्ञानता से देश तो असुरक्षित बनेगा साथ ही सेना भी कमजोर होगी और दुश्मन हमारे सिर होगा।
लोकतांत्रिक देश में रहते हुए भी देश कि अहम समस्याओं का जिम्मेदार हम सरकारी-तंत्र व उसके उन मंत्रियों व अफ़सरों को ठहराकर खुद को बचाने कि कोशिश करते हैं जिन्हे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुनने या बनाने में प्रथम भूमिका हमने ही निभाई। यह एक वास्तविकता हैं कि आज इस देश को जो भी हालात हमें मिले हैं, एक राजा के रूप में इसके जिम्मेदार पुरी तरह से हम हैं। यह हमारे उन निर्णयों के नतीजे हैं जिनसे हमने हमारे जन-प्रतिनिधियों को चुना। चुनाव के वक्त या तो हमें अंधेरे में रखा जाता हैं या फिर हम स्वयं वास्तविकता जानने के लिये कभी अपना दायरा नहीं तोड़ पाते।
हमें एक राजा के नाते देश से जुड़े प्रत्येक विषयों, जैसे आधुनिकता, स्वदेशी, राजनीति, सभ्यता, संस्कृति, धर्म आदि पर हमें जागरूक होने व सतर्क रहने कि बेहद जरूरत हैं जिससे हम हमारे जन-प्रतिनिधि को चुनने में कोई भुल ना करे, देश में छुपे दुश्मनों व षडयंत्रों को पहचान सकें व देश कि सुरक्षा के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभा सके।
कैसे बनेंगे रक्षक ?
यह हमारे जीवन का सबसे बड़ा दायित्व हैं कि जिस मातृभूमि पर हमने जन्म लिया हैं उस धरा से जुड़े विषयों पर स्वयं को जागृत रखे। प्रत्येक विषय पर हमारे विचार सकारात्मक हो व इन पर किसी प्रकार के भ्रम को हमारे भीतर ना पनपने दे। यदि हम ही भ्रमीत होंगे तो लोकतांत्रिक ढाँचा ही कमज़ोरी से जूझता रहेगा और कुछ एसी ही स्थिति आज देखने को मिल रहीं हैं। जिस तरह एक भ्रमीत राजा सटीक निर्णय लेने में सक्षम नहीं होता हैं उसी तरह भ्रमीत जन-तंत्र भी सही नेतृत्व का चुनाव नहीं कर सकता। लोकतंत्र में यदि नेतृत्व ही सही नहीं होगा तो ना धर्म कि रक्षा हो सकेगी, ना ही संस्कृति को बचाया जा सकता हैं और ना ही देश कि सिमाये सुरक्षित रह सकेगी।
जिस तरह हमारा जागरूक रहना जरूरी हैं उसी तरह हमसे जुड़े समाज को जागृत करना भी जरूरी हैं। ऐसे विषय जिनका समाज व देश पर सीधा असर पड़ता हो उसे जन-जन तक फैला कर लोगों को जागृत करने का संकल्प करना जरूरी हैं। लोकतंत्र कि सफलता में हर भारतीय का योगदान बन सके ऐसी कोशिशें निरंतर चलनी चाहिए क्योंकि जब तक एक विशाल वर्ग कि समझ सही दिशा में नहीं बढ़ पाती लोकतंत्र अभिशाप बना रहेगा।
वैसे कहा जाए तो हम भारतीयों पर साधारण रूप से अर्जून-गूण व बजरंगी-गूण हावी रहते हैं। अर्जून-गूण, जो अधिकांश विषयों पर हमे एक निर्णय नहीं करने देता व बजरंगी-गूण, जो स्वयं कि क्षमता को ही भुला देता हैं। यह ठिक वेसे ही हैं जिस तरह महाभारत में अर्जुन का युद्ध-भुमी पहुंच कर भी युद्ध किया जाए या नहीं इस पर एक निर्णय नहीं ले सकना तथा बजरंगबली का महाबली होते हुवे भी अपनी क्षमता को भुला बैठना। ऐसी कमजोरियों को त्यागने हेतु राष्ट्र व समाजहित के प्रत्येक विषयों पर हमें हमारे भ्रम कि स्थिति को मिटाना होगा। जब हमारे भ्रम मिटेंगे तभी हम निर्णायक भुमीका के लिये तैयार हो पायेंगे। हमारा संविधान भी प्रत्येक मतदाता से यही अपेक्षा करता हैं कि हम सारे विषयों पर सतर्क रहते हुए राष्ट्रहित में योग्य प्रतिनिधि का चुनाव करें।
मातृभूमि कि रक्षा में जहाँ राजनीति एक कर्ता हैं वहीं अन्य विषय इसके पुरक हैं। सारे विषय एक दुसरों पर आधारित हैं व किसी भी विषय कि महत्ता दुसरे से कम नहीं। साधारण से दिखने वाले विषय जैसे शिक्षा, धर्म, संस्कृती, राजनीति, स्वदेशी देश के लिये अति महत्वपूर्ण विषय हैं। इन विषयों पर हम भारतीयों कि पकड़ जहाँ भारत को विश्व-गुरू बना सकती हैं वहीं इनसे नज़रअंदाज़ी पूरे भारत वर्ष के लिये खतरा बन सकती हैं। राष्ट्र-विरोधी ताकतों ने हमारी ऐसी कमज़ोरी के चलते अपना पूरा जोर हम भारतीयों को विषयों से भ्रमीत कर भटकाने में लगाया।
एक लोकतांत्रिक देश में आम जनता के हाथों मातृभूमि कि रक्षा के लिये यदि कोई सर्व-शक्तिशाली व अभेद शस्त्र हो सकता हैं तो वो मात्र राष्ट्र को समर्पित उनके “विचार” हैं। इस लिये जन-जन का यह दायित्व बनता हैं कि मातृभूमि से जुड़े प्रत्येक मुद्दों पर अपने विचार पुरी तरह से शुद्ध रखे। अपने विचारों को शुद्ध करने के लिये स्वयं का निरंतर आत्म-चिंतन बेहद जरूरी हैं। आज हम भारतीयों का सबसे बड़ा शत्रु यदि कोई हैं तो वह मात्र हमारे विशुद्ध विचार जिन्हे षडयंत्रकारीयों नें कभी हमारी शिक्षा में घौला, कभी संचार तंत्र से पिलाया या फिर मनोरंजन के नाम पर परोसा जो एक धीमे जहर सा हमारी मानसिकता में फैलता गया। इनके जाल में फँस कर हम या तो ऐसे विषयों को समझने से ही दूर भागते हैं या इन पर कई गलत धारणाओं को धारण कर लेते हैं जैसे – “धर्म” मात्र कमाई कि दुकान हैं, “राजनीती” अच्छी नहीं हैं और “सभ्यता-संस्कृती” कि बातें मतलब पिछड़ापन। वास्तव में इन विषयों का महत्व इतना गहरा हैं कि पूरे भारत वर्ष कि बुनियाद इन पर ही आधारित हैं। हमारा भटकना हमारे पुरखों के बलिदानों से संजोइ विरासत को पुरी तरह धुमील कर सकता हैं, हमारी अगली पीढ़ी को एक और गुलामी व हैवानियत के दौर से गुजरना पड सकता हैं और यहाँ तक की हमारी मातृभूमि का अस्तित्व ही खतरे में पड सकता हैं। एसी दुर्लभ परिस्थितियों से बचने का एक आसान सा मार्ग यहीं हैं कि हम स्वयं को व राष्ट्र को जागृत करे। कोशिश करें कि सारे भारतीयों में विचारों का समान समन्वय स्थापित हो जिससे हम मातृभूमि कि सेवा में सभी भारतीयों को एक रक्षक कि भूमिका मे ला सकें। संभवतः तत्पश्चात् ही हमारा भारत सही मायनों मे सुरक्षित कहलाएगा। इस किताब को लिखते हुए मेरा यह स्पष्ट मानना हैं कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में हम भारतीयों कि सबसे बड़ी ताकत हमारे विचार हैं जो राष्ट्र को स्पष्ट दिशा कि और ले जा सकते हैं।
जब हम आम जनता द्वारा देश के रक्षक होने कि बात करते हैं तो देश व जनता के बीच में जो मुख्य कडी के रूप में उभरने वाला विषय हैं “राजनीती”। आम जनता स्वयं से भले ही कितनी भी कोशिश करले किंतु जब तक हमारे प्रयास को राजनीतिक इच्छाशक्ति का बल नहीं मिल जाता तब तक हमारा प्रयास पुरी तरह सफल हो नहीं सकता। धर्म, संस्कृती, इतिहास, विज्ञान, विकास व सुरक्षा जैसे सारे गम्भीर विषयों पर देश का रूख किस तरह का होगा यह तय होता हैं मात्र राजनैतिक इच्छाशक्ति से। इसी तरह देश से जुड़े किसी भी विषय को हम उठाले किंतु उसकी अंतीम छोर राजनीतिक इच्छाशक्ति कि आधारशिला पर आकर ठहर जाएगी। यदि हम चाहते हैं कि हमारा धर्म सुरक्षित रहे, किसानों कि गाय व खेत सुरक्षित रहे, एसा विकास हो जिसमें हमारी संस्कृती को आँच ना आये, हमारे ऋषि-मुनियों का कोई अपमान ना कर सके, हमारे देश के दुश्मन हमें आँख ना दिखा सकें व देश के स्वाभिमान हमेंशा बना रहे तो हमें एसे जनप्रतिनिधियों को चुनना होगा जो हमारी एसी इच्छाओं कि कसौटी पर खरा उतरे।
हमारा आज़ादी के पश्चात के अबतक का इतिहास भी इन विचारों को सिद्ध करता हैं – आज़ादी के बाद भी ना ही गो-हत्या बंद हो सकी, ना ही राम मंदिर बन सका और ना ही धर्म का स्वाभिमान सुरक्षित रह पाया मात्र इसीलिये क्यूँ कि राजनीतिक इच्छा पुरी तरह इनके विरोध में रहीं जब कि देश कि जनसँख्या का एक बड़ा वर्ग इसके पक्ष में सर्वथा रहा हैं।
इस पुस्तक का उद्देश्य
हमारे देश के संविधान के तहत स्थापित लोकतंत्र प्रत्येक भारतीय को इस देश के उत्तराधिकारी के रूप में देखता हैं। क्या यह प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य नहीं कि समय पर अपने मताधिकार का प्रयोग कर देशहित में उपयुक्त प्रतिनिधी चुने। यह मात्र तभी संभव हैं जब हर भारतवासी जिम्मेदारी को समझते हुए मातृभूमि से जुड़े सारे पहलुओं पर स्वयं को जागरूक रखे। इस तरह हम अपने व देश से जुड़े भविष्य पर उम्मीदवारों के नीतियों पर आत्ममंथन करने में सक्षम होंगे व उम्मीदवारों द्वारा ठगे जाने से राष्ट्र कि रक्षा में भूमिका निभा सकते हैं।
यह किताब मातृभूमि से जुड़े प्रत्येक विषय तथा उनके महत्वपूर्ण समाजिक-राष्ट्रव्यापी पहलू पर एक सकारात्मक नजरिये को लेकर लिखी गई हैं। प्रत्येक विषयों पर हमसे व देश से जुड़े इनके महत्व को उभारते हुए हम अपनी निजी जिंदगी में इनके प्रती किस तरह सकारात्मक विचारों से स्वयं व देश के भविष्य को सुरक्षित व सफल बना सकते हैं इसे समझाने का एक प्रयास किया गया हैं। कोशिश यहीं हैं कि इन विषयों पर समाज में सकारात्मक विचार का फैलाव हो जो राष्ट्र कि सुरक्षा में अहम भूमिका निभा सकें। देश के समकक्ष खडी गम्भीर समस्याओं से वाचक को सतर्क करना, उनके चिंतन को राष्ट्रहित कि दिशा में अग्रसित करना व सकारात्मक विचार वाले जागृत देशभक्तों कि एक श्रंखला खडी करना इस किताब का एक मात्र उद्देश्य हैं।
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