राजनीती का महत्व
“I hate Politics” यह तीन शब्द किसी भी पढें-लिखे युवा के लिये बेहद आम से बन गये हैं। या तो वो खुद दुसरों से कहता फिरेगा या फिर उसे कोई-न-कोई कहता मिल ही जायेगा। ना तो हमारी शिक्षा हमें राजनीति का महत्व पुरी तरह सिखा पाती हैं और ना ही आज का समाजिक परिवेश ही हमें इस दिशा में जाने को प्रोत्साहित कर पाता हैं। लेकिन वास्तविकता यह हैं राजनिति वह विषय ही नहीं जिससे प्यार या द्वेष रखा जा सकें।
प्रश्न यह हैं की क्या हम कभी यह कह सकते हैं कि – मुझे मेरे माता-पिता पसंद नहीं! या मुझे मेरा परिवार पसंद नहीं! या फिर मुझे मेरा राष्ट्र पसंद नहीं!!!
जाहिर हैं, नहीं। क्यूँ की माता-पीता, परिवार व मातृभूमि कोई विषय नहीं। इनसे यदि हमने मुँह मोडा तो वह हमारी मूर्खता को उजागर करेगा। ठिक इसी तरह राजनिति भी मातृभूमि की सेवा का एक मार्ग हैं। यह मार्ग जनता के ही हाथों निर्माण होता हैं जिस पर चल कर राजनेता देश को गती देते हैं। लेकिन दुखद व्यथा हैं कि जिस विषय से पढें-लिखों का वास्ता अधिक होना चाहीये, शिक्षित वर्ग उसी से कन्नी काटता नजर आता हैं।
मनोरंजन व राजनिती
आज एसे ढ़ेरों लोग हमें हर नुक्कड़ पर मिलेंगे जो खेल व फिल्मों में रूचि लेते हुए इनसे जुड़े वाद-विवाद पर अतिरिक्त समय का उपयोग करते हैं किंतु इसी तरह राजनीति पर रूचि लेने वाले हर नुक्कड़ पर नहीं मिल पाते? जिस तरह खेल व मनोरंजन जीवन में जरूरी हैं उसी तरह राजनीति भी तो देश के हर नागरिक के लिये ना केवल अहम हैं बल्कि उनकी जिम्मेदारियों का एक हिस्सा हैं। अपने पसंदीदा खिलाडी़ या फिल्म कलाकार का नाम यदि आप पूछेंगे तो अधिकतर लोगों से जवाब मिल जायेगा लेकिन राष्ट्रवादी राजनेता का नाम पूछेंगे तो शायद ही किसी से जवाब मिल पायेगा। विचारा-धीन प्रश्न यह उठता हैं कि एक नागरिक के लिये किसका महत्व अधिक होना चाहीये, खिलाडी़-कलाकार का या फिर राष्ट्रवादी राजनेता का? कोई खिलाडी़-कलाकार कितना ही बडे़ हुनर वाला क्यों ना हो क्या वो देश कि गरीब जनता का पेट भर सकता हैं? जाहिर हैं, नहीं। लेकिन यही प्रश्न यदि राष्ट्रवादी राजनेता के विषय में करें तो निश्चित तौर पर जवाब मिलता हैं – हाँ, एक राष्ट्रवादी नेता यदि शासन करे तो वह गरीब जनता का पेट भी भर सकता हैं, शिक्षा व रोजगार भी खडे कर सकता हैं व देश की सुरक्षा का जिम्मा भी उठा सकता हैं। अब यदि राष्ट्रवादी नेता यह सब कर सकता हैं तो नागरिकों के लिये महत्वपूर्ण कौन हुवा? आखिर क्यूँ देश के अधिकतर लोग एक राष्ट्रवादी नेता के प्रश्न पर निरूत्तर हो जाते हैं? जब हम खेल में अच्छे खिलाडी को और फिल्मों में अच्छे अभिनेता को भगवान मान सकते हैं तो एक कर्मठ नेता तो इनसे कहीं अधिक राष्ट्र के लिए हितकारी होता हैं फिर उन्हें क्यों भगवान तुल्य नहीं मान सकते!
संवैधानिक दावित्य
भारत के संविधान ने प्रत्येक नागरिकों को उसके व्यस्क होते ही मतदान करने का अधिकार दिया हैं। ग्रामपंचायत, नगरसेवक से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक सारे जनता हित के पदों पर नियुक्ति में जनता ही अहम भूमिका निभाती हैं। लोकतंत्र ने अपने गाँव, नगर व देश को प्रबल बनाने का जो सर्वप्रथम अवसर दिया हैं वह जनता के ही हाथों में हैं।
लोकतंत्र द्वारा दि गई इस शक्ति के बावजूद यदि हमें कोई यह कहता मिले कि सरकार कुछ नहीं करती या इस देश का कुछ नहीं हो सकता, तो कमी हमें स्वयं मे ही खोजनी होगी। राजनेताओं पर दोष मढना आसान हैं किंतु हमें यह मानना ही होगा की इसके लिये पुरी तरह से हम ही जिम्मेदार हैं जिन्होने या तो मतदान नहीं किया या योग्य नेता को चुनने में भुल कर दीे।
राजनीति के असर
राजनीती वह विषय हैं जिसका असर इतना व्यापक हैं की धनवान से लेकर निर्धन, कोई अछूता नहीं।चाहे वह खेत में मजदूरी कर पेट भरने वाला गरीब हो या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापर करने वाला व्यापारी हो हर किसी पर राजनीती का गहरा असर बना रहता हैं।
व्यक्तिगत जीवन में:
– आप को नौकरी मिलेगी या नहीं, मिलेगी तो टिकेगी या नहीं इस पर राजनीति असर करती हैं
– आप कोई भी व्यवसाय से जुड़े हो, राजनीति असर करती हैं
– आप व्यक्तिगत या व्यापार के लिए कर्ज लेने पहुंचेंगे, तो राजनीति असर करती हैं
– आपके बिजली के बिल, गैस-पेट्रोल के बिल पर भी राजनीति असर करती हैं
– आपकी बचत, बिमा, सेवानिवृत्ति योजना और सरकारी खजाने में दिए गए कर पर भी राजनीति का बड़ा असर होता हैं
– आपके द्वारा ख़रीदे गए उत्पाद – टेबलेट, लैपटॉप, मोबाइल, टिव्ही, फ्रिज पर भी राजनिति असर करती हैं
– यहाँ तक की जब आप बाजार में आटा – दाल – सब्जी भी खरीदते हैं, राजनीति असर करती हैं
– जब आप यात्रा पर जाते हैं और विमान – रेल – बस – होटल के बिल देते हैं, राजनीति असर करती हैं
– जब बच्चों को शिक्षा के लिए भेजते हैं अथवा उनके भविष्य के सपने संजोते हैं, राजनीति असर करती हैं
– आपके घर की बहन – बेटी – महिलाओं की सुरक्षा पर भी राजनीति असर करती हैं
– आप जो दान-धर्म के रूप में धार्मिक स्थलों पर चढावा चढाते हैं, वहाँ पर भी राजनीति असर करती हैं
– आप जितने त्योहार मनाते हैं उन त्योहारों पर भी विभिन्न रूप से राजनीति असर करती हैं
समाज और देश पर:
– समाज की सुरक्षा और कानून व्यवस्था पर राजनीति असर करती हैं
– देश की आर्थिक एवं सामाजिक नीतियां भी राजनीति ही तय करती हैं
– पड़ोसी देशो द्वारा फैलाया जा रहा आतंकवाद घुसपैठ भी राजनीति के अधीन हैं
– पड़ोसी देशो द्वारा देश की सीमओं पर किये गये हमले पर प्रतिउत्तर भी राजनीति से प्रेरित हैं
– देश का मान-सम्मान व प्रतिष्ठा भी राजनीति की दिशा तय करती हैं
प्रश्न यह कतई नहीं होना चाहिये की राजनीति में किसी की रूचि हैं या नहीं… बल्कि राजनीति विषय का इतना महत्व होने के पश्चात भी क्या किसी समझदार नागरिक कि हिम्मत हो सकती हैं की वो राजनीति में रूचि ना ले!!! और यदी शिक्षित हो कर भी व राजनीति जैसे विषय को नजर अंदाज करे तो क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं होगा।!!!
यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी हैं की राजनीति में रूची का अर्थ किसी राजनेता अथवा राजनीतिक दल का कार्यकर्ता बनने से कदापि नहीं। किंतु देश कि राजनीति में सक्रिय राजनेताओं के विषय में सचेत रहने से अवश्य हैं।
जब देश के संविधान ने सभी को मत देने देने का अधिकार दिया हैं तो राजनीति में रूचि रखना हर नागरिक की प्राथमिक ज़िम्मेदारी हैं।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में वर्तमान राजनीतिक स्तर के लिए यदि जिम्मेदारी किसी के नाम बनती हैं तो वह इस देश के नागरिक ही हैं। अतः राजनीति से मुँह मोड़ना देश के प्रती हमारे लापरवाह हो जाने का सीधा संकेत हैं।
लोकतंत्र कि आत्मा हैं – जागरूकता
हर इंसान को प्रकृति ने घटनाओ और वस्तुओं को देखने का अपना अलग नजरिया दिया हैं। कोई एक नजरिया सभी के लिये स्वीकार्य हो यह संभव नहीं। जैसे एक फल किसी को मात्र स्वाद कि दृष्टि से पसंद हो सकता हैं, कोई उसे गुणों के आधार पर पंसद कर सकता हैं या एसा भी हो सकता हैं कि कुछ को पसंद ही ना हो। कुछ को अज्ञानता के अभाव में पहले फल पसंद नहीं होता किंतु ज्ञान के बाद पसंद हो जाता हैं, कुछ ना पसंद होते हुए भी गुणवत्ता के आधार पर ग्रहण करते हैं और कुछ के लिये उसे अपनाना सहज ही नहीं हो पाता। लोगों का फल के प्रती जो भी दृष्टिकोण हो किंतु फल कि गुणवत्ता के आधार पर ही उसे पसंद या ना पसंद करना अधिकतर लोगों के लिये स्वीकार्य रहता हैं। इसी तरह समाजिक घटनाओ पर भी सभी के अलग नजरिये हो सकते हैं। किंतु वह नजरिया जो दोश-व-समाज हित को दर्शाये वहीं नजरिया अधिकतर लोगों के लिये स्वीकार योग्य रहता हैं। लेकिन समाजिक घटनाए इतनी सरल नहीं होती कि हर किसी को आसानी से समझ आ जाये जब तक कि वे खुद उसे जानना ना चाहे। किसी भी समाजिक घटना या राजनैतिक पर्व का समर्थन अथवा विरोध करने से पहले जनता को उसे तह तक समझ कर जानना जरूरी होता हैं किंतु अक्सर हमारी जनता, विशेषकर शिक्षित वर्ग जो समझ भी सकते हैं, उसके प्रती जागृत होने के बजाये उससे दुर भागते हैं।
कल्पना किजिये एक एसे राज्य का जीसका राजा बड़ा ही अज्ञानी हो! क्या हाल होगा उस राज्य का? और वहाँ की प्रजा का? ना ही न्याय मिलेगा और ना ही शासन चलेगा। कुछ एसा ही हाल आज़ादी के बाद से अब तक भारत का रहा हैं। हमारे देश में प्रजा को ही राजा माना गया हैं क्यूँ की वह जनता ही होती हैं जो देश कि बागडोर संभालने वाले का चुनाव करती हैं। यदि जनता ही जागृत नहीं तो कोई भी ढोंगी जनतो को भ्रमीत कर बागडोर हथियाता रहेगा। इस तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था को कारगर होने के लिये महत्वपूर्ण शर्त यहीं हैं कि बडे़-पैमाने पर देश कि जनता जागृत हो व एक राय से योग्य व सक्षम नेता का चुनाव कर सकें जीससे चुना हुवा राष्ट्रवादी प्रतिनिधी बगैर अवरोध के देशहित में अपने कार्य को अंजाम दे सकें। लोकतंत्र कि सफलता के लिये लोगों के विचारों का एकीकरण बेहद आवश्यक होता हैं। यदि समाज के लिये कुछ अहितकारी हैं तो जनता का तीव्र प्रतिरोध आवश्यक हैं वहीं हितकारी बदलाव के लिये सभी का एकजुट होना भी जरूरी हो जाता हैं। लोकतंत्र में जनता के एकजुट होने की अनिवार्यता एक तरह से लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी हैं जिसका फायदा उठाकर राष्ट्र-विरोधी ताकते जनता को तरह-तरह से भ्रमित कर विभाजित करने की कोशिश में हमेशा से लगी रही हैं।
महापंडित चाणक्य के अनुसार जहाँ की जनता लोभ-लालच व निंद्रा में डूबी होती हैं वहाँ पर कपटीयों का शासन चलता हैं। लोकतांत्रिक देश के लिये यह कथन शतप्रतिशत प्रमाणित भी हैं। देश को आज़ादी मिलने के पश्चात से आज तक देश में पनपे राजनैतिक वातावरण से यह पुरी तरह चरीथार्त भी हुवा हैं अन्यथा भारत अपनी चुनौतियों के समक्ष इस कदर लाचार ना नजर आता। लोकतंत्र व्यवस्था में मात्र कुछ लोगों कि जागरूकता सर्वदा असफलता को ही प्राप्त करेंगी। लोकतंत्र केवल तब सफल हो सकता हैं जब अधिक-से-अधिक लोग जागृत हो। इस तरह सभी जागृत नागरिकों को निरंतर प्रयास करना होगा कि वे हर तरह से नींद-मुद्रा में डूबे लोगों को देश के प्रती जागृत करे। जब सभी कि विचारधारा एक दिशा में बढ़ेगी तभी ही लोकतंत्र सफल हो पायेगा।
भ्रष्टाचार व राष्ट्रद्रोह का फर्क
आज हर तरफ से यहीं सिद्ध करने की कोशिश की जा रही कि भ्रष्टाचार देश कि सबसे बड़ी समस्या हैं, लेकिन वास्तविकता यह हैं कि भ्रष्टाचार से भी बड़ी समस्या हैं राष्ट्रद्रोह। एक राजनेता भ्रष्ट हो कर भी देशभक्त हो सकता हैं किंतु यदि व राष्ट्रद्रोही हैं तो वह इस देश के लिए घातक हो जाता हैं। देश भ्रष्टाचारी को भले क्षमा कर भी ले किंतु राष्ट्रद्रोही के पाप भुलाने लायक नहीं हो सकते। उदाहरणतः किसी नेता ने अपनी कुर्सी के दम पर अपने रिश्तेदारों को लाभ पहुँचाया हो तो यह एक तरह का भ्रष्टाचार हैं किंतु यदि किसी नेता ने इसी तरह दुश्मन देशों के गुप्तचरों, दलालों या भारत मे आतंक फैलाने की मंशा रखने वालों का साथ दिया तो यह राष्ट्रद्रोह का मुद्दा बन जाता हैं। भ्रष्टाचार देश को आर्थिक हानी पहुँचा सकता हैं, व्यवस्था में बदहाली ला सकता हैं किंतु राष्ट्रद्रोह देश कि सुरक्षा को खतरे में डाल सकता हैं व देश के टुकड़े कर सकता हैं, देश को एक और गुलामी कि और ढकेल सकता हैं। तात्पर्य यहीं हैं कि भ्रष्टाचार से कहीं अधिक हानिकारक व चिंताजनक विषय हैं राष्ट्रद्रोह, जिसे हमें भली-भाँति समझना जरूरी हैं।
लोकतंत्र का जहर – सभी नेता चोर हैं!
जहां लोकतंत्र में लोगो की एक जुटता की आवश्यक हो जाती हैं वहीँ इसका फायदा राष्ट्रविरोधी उठाते आ रहे हैं यहाँ तक कि विदेशी तंत्र भी भारतीय राजनीति को अब खिलौने के रूप में लिये खेलता नजर आता हैं। या तो बडे़ पैमाने पर लोगों को तरह-तरह के सांप्रदायिक या जातिवादी षडयंत्रो से भ्रमीत करने की कोशिश की जाती हैं या पारिवारिक राजनीति का रंग चढ़या जाता हैं या फिर कइ फर्जी नेताओं को खडा कर दिया जाता हैं जिससे लोगों के मत विभाजित हो सके। भ्रष्ट नेताओं पर तो लांछण लगने ही हैं किंतु ईमानदार नेताओं पर भी कइ प्रकार के आरोप मढ दिये जाते हैं जिससे जनता में हमेंशा भ्रम बना रहे। वे जानते हैं कि भ्रष्ट राजनेता का चेहरा एक बार उजागर होने के बाद जनता अपना रूख बदल सकती हैं इसीलिये ईमानदार नेताओं कि छवी भी धुमील कर लोगों कि नजरों में सभी नेताओं की छवी को एक जैसा बनाने की कोशिश की जाती हैं। चुकी आम जनता में राजनिति के प्रती पहले ही नकारात्मकता फैला दी गई हैं की लोग नेताओं के विषय में अपनी बुद्धि खर्च करने से सदैव दुर भागते हैं और प्रत्येक नेता के प्रती भ्रष्टाचारी होने का नजरिया आसानी से अपना लेते हैं। आज जनता में जो “हर नेता चोर हैं” की मानसिकता बनी हुई हैं यह इन राष्ट्रविरोधीयों के खेती की ही फसल हैं। हमारी एसी मानसिकता हमारे लोकतंत्र के लिये एक विष के समान हैं जो देश व हमारे लिये घातक हैं जिसे पाल कर हम अपने ही देश को सर्वनाश कि दिशा में ढकेलते रहेंगे। आज जरूरत हैं कि हम स्वयं एसी मानसिकता का त्याग करे व अन्य को भी जागृत करे। हमें हर हाल में जागृत रहते हुवे राष्ट्रवादी नेताओं की पहचान करना आवश्यक हैं जिससे षडयंत्रकारियों के षड़यंत्र विफल हो सके।
क्या करे यदि सभी नेता भ्रष्ट ही लगने लगे?
प्रथम सत्य तो यह हैं कि किसी भी दौर में भारत भूमी पर प्राण न्यौछावर करने वाले देशभक्तों की कभी कमी नहीं रहीं हैं। आज भी एसे करोडों देशभक्त हैं जो मातृभूमि के लिये मरमिटने को तैयार हैं। उसी तरह राजनेताओं में भी एसे नेता हमेंशा रहे हैं जिन्हे स्वयं के स्वार्थ से भी बढ़कर देशहित की चिंता रहती हैं। लेकिन भ्रष्टतंत्र एसे नेताओं पर जबरन आरोप मढ कर यह साबित करने में लगा रहता हैं कि कोई भी नेता ईमानदार नहीं हैं और जनता का विश्वास हमेंशा भटकता रहे। हमें एसे भ्रष्टतंत्र के पैतरों को समझना होगा। फिर भी यदि सभी भ्रष्ट लगने लगे तो कुछ एसे मापदंडों का सहारा लिया जा सकता हैं…
– पहले तो राष्ट्रद्रोही नेताओं को अलग करले, भ्रष्टाचारी को फिर भी चुना जा सकता हैं किंतु राष्ट्रद्रोही को नहीं
– भ्रष्टाचारियों में भी जो भारत को पहचानते हैं व भारतीयता का सम्मान करते हैं वे भारत कि सभ्यता व संस्कृती के रक्षक हो सकते हैं, उन्हें मौका दिया जाना चाहिये
– जो नेता हमारे मूल इतिहास से परिचित ही नहीं उनकी देश के वर्तमान व भविष्य को सुरक्षित कर सकने की क्षमता सदैव संदेहास्पद रहेगी
– जाती व धर्म आधारित राजनीति का समर्थन नहीं किया जाना चाहिये किंतु जो नेता भारतीयता का विरोध करे उसका देश कि संस्कृति का दुश्मन होना स्वभाविक हैं, इनसे राष्ट्र का भला कदापि नहीं होना
– नेताओं को चुनने में उनके द्वारा किया गया पिछला कार्य व आचरण उन्हें समझने में बडे़ सहायक होते हैं
– किसी नेता को मात्र इसीलिये चुना या नकारा नहीं जा सकता कि वह किस परिवार से संबंध रखता हैं किंतु यह हमें समझना अवश्य हैं कि उस नेता को अपने पुरखो के अच्छे व बुरे, दोनों ही कर्मो का ज्ञान हैं या नहीं व उसपर उसकी क्या राय हैं
– देश के एसे नेता जिनका दुश्मन देश में कडा विरोध होता हो एसे नेता देश के लिये शुभचिंतक हो सकते हैं
– जिन नेताओं को देश से भी अधिक विदेशों से चंदा मिलता हो व जिनकी तीव्र रूचि विदेशो में केंद्रित हो, वे कदापि भरोसे लायक नहीं हो सकते
– विदेशी मूल के नेता के देश से जुडी सुरक्षा के लिये घातक होने कि पुरी संभावना रहनी हैं
– जो नेता मात्र बगैर किसी उपलब्धि के आरोप-प्रत्यारोप कि राजनीति करते रहते हैं वह भी भरोसे के लायक नहीं
– वोटबैंक व तुष्टिकरण कि राजनीति करने वाले राजनेता भी राष्ट्र के लिये एक बड़ा धोखा हैं जिनसे सावधान रहना जरूरी हैं
क्या राजनिति विषय वाकई निराशा भरा हैं?
कइ लोगों को राजनिति का विषय बड़ा ही बेरंग नजर आता हैं लेकिन विद्युत रूपी समाजिक संचार तंत्र (Social Media) ने इस नजरिये पर पूर्णतया विराम सा लगा दिया हैं। आज लाखों महानुभव सोशियल तंत्र के जरीये एक से बढ़कर एक कटाक्ष प्रस्तुत कर आकर्षण का केंद्र बन रहे हैं। कइ लोगों ने अब इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लिया हैं जिसके फलस्वरूप राजनीति विषय पुरी तरह निखर कर उभर रहा। इसके चलते जनता अपनी भावना ज़ोरदार तरीके से उभारकर जहाँ राष्ट्रवादीयों को उत्साहित करती हैं तो कइ राजनेताओं को उनकी अनीती के लिये फटकार भी लगातीं हैं। सोशियल-मिडिया के चलते राजनेता तक आम जनता कि पहोंच बेहद आसान हो गई हैं। इसके कइ सकारात्मक परिणाम भी उभकर आ रहे व जनता का जुकाव राजनीती की और बढ़ चला हैं। विशेष रूप से सोशल मिडिया ने युवाओ को राजनीती की और बेहद आकर्षित किया हैं जो अन्यथा संभव नहीं था। लेकिन इस वर्ग में एक ऐसा वर्ग भी हैं जो राजनीती जैसे गंभीर विषय पर मात्र मनोरंजन ध्येय को साधने की कोशिश में लगा रहता हैं। इनकी बुद्धि कर्मठ व छिछोरे नेताओं में फर्क करने की क्षमता विहीन होती हैं अतः ये सभी नेताओ पर निराधार तंज कसते नजर आते हैं। ऐसा वर्ग जाने-अनजाने में अन्य लोगो में ठीक उसी तरह भ्रम फैलता हैं जिस तरह बिकाऊ पत्रकारिता जिससे सभी नेता एक जैसे नजर आते हैं। हमें चाहिए की हम खिंचाई का पात्र मात्र उन्ही राजनेताओ को बनाये जो राजनीति का उपयोग मात्र स्वयं का उल्लू सीधा करने हेतु करते हैं।
आरक्षण कि राजनीति
हमारे लोकतांत्रिक देश की राजनीति में अब तक आरक्षण एक बड़ा मुद्दा रहा हैं। कइ नेताओं ने इसी मुद्दे से अपनी राजनीति चमकाई हैं व आज भी राजनेता कुछ वर्गों को खुश करने के लिये समय-समय पर इस मुद्दे को उछालते रहते हैं। हमारे संविधान ने पिछडे वर्ग को मुख्य धारा से जोड़ने के लिये आरक्षण का अधिकार दिया हैं। लेकिन राजनीति कि चकाचौंध में डूबे कुछ नेताओं ने आरक्षण को अपना राजनेतिक हथियार बना लिया हैं। अब तो इसे जाती के साथ-साथ धर्म से भी जोड़ा जाने लगा हैं। यह देश के भविष्य पर एक अपघात की तैयारी हैं।
आरक्षण का जो पिछडो को मुख्य धारा से जोड़ने का उद्देश्य हैं वह महत्वपूर्ण हैं किंतु वास्तविकता में अब तक इसका लाभ निर्धारित वर्ग को पुरी तरह नहीं पहुँच पाया इसका प्रमुख कारण यह हैं की इसे अब तक मात्र जाती आधारित किया गया हैं जब कि इसे परिवार की आय व संपत्ति आधारित भी होना चाहिये। एक गरीब कि संतान यदि सामान्य जाती में जन्म लेती हैं तो वह दोहरे कष्ट को भुगतने को विवश हो जाती हैं। उसे ना ही आर्थिक सम्पन्नता मिल पाती हैं और ना ही आरक्षण का लाभ मिल पता हैं। वहीं एक धनवान कि संतान यदि पिछडी जाती से जन्म लेती हैं तो भले ही वह स्वयं के निर्वाह में पुरी तरह सक्षम हो लेकिन फिर भी आरक्षण का लाभ उठा सकती हैं क्यूँ कि उसे आरक्षण कि सुविधा सहित दोहरा सौभाग्य प्राप्त हो जाता हैं। यहां तक की पिछडी जाती का गरीब भी आरक्षण से अधिकतर वंचित ही रह जाता हैं क्यूँ की ना तो उन्हें इसका अधिक ज्ञान होता हैं और ना ही वे आरक्षण कि दौड़भाग में अपने धनवान सहजातियों से आरक्षण हेतु प्रतिस्पर्धा कर पाते हैं। इस तरह साधारण जाती के गरीब जैसी अवस्था पछड़ी जाती के गरीब की भी हो जाती हैं वस्तुतः आरक्षण का ज्यादतर लाभ मात्र पिछड़ी जाती से जुड़ा सम्पन्न वर्ग ही उठाता आ रहा हैं।
वर्तमान स्थिति में आरक्षण व्यस्था अपने उद्देश्य पूर्ण नहीं कर पा रहीं हैं व साथी ही साधारण जाती के असहाय वर्ग में असंतोष भी फैला रहीं हैं। देश में रहने वाला गरीब व असहाय वर्ग आरक्षण का पहला हकदार होना चाहिए। हमें हमारे राजनैतिक बुद्धिजीवियों को इस पर विचार करवाना होगा।
तुष्टिकरण व बेमुद्दो की राजनीती
इस तरह कि राजनीति करने वाले राजनेता आज देश के सामने बड़ी समस्या बन कर उभर रहे हैं। एसे नेता हर मुद्दे पर खुद को निराधार किसी एक पक्ष का प्रतिनिधी साबित करने पर उतारू हो जाते हैं महज इस लिये कि उन्हें प्रतिपक्ष के विरूद्ध विपक्ष की भूमिका निभानी होती हैं। इसी तरह कइ एसे मुद्दों व विषयों को जन्म दिया जाता हैं जिसका वास्तविकता से कोई सरोकार ही नहीं होता। अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने में लगजाते हैं, गैर जरूरती विषय पर अपने अनेकों षडयंत्र से जनभावना जुटाने कि कोशिश करते हैं। इसके लिये वे जनहित व राष्ट्रहित को भी पुरी तरह ताक पर रख देते हैं। हमें एसे नेताओं को पहचान कर उन्हें राजनीति से दुर ढकेलने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
साधु-संत व राजनीती
एक कुप्रचार बडे़ जोर-शोर से फैलाया जा रहा की साधु-संतों को राजनीति से दूर रहना चाहिये! तर्क दिया जाता है की वे सिर्फ धर्म के पुजारी हैं इसीलिये उन्हें मात्र अपने धर्म व योग प्रचार पर ही ध्यान देना चाहिये। यह पुरी तरह असत्य हैं व दुर्भाग्य पूर्ण हैं। भारतीय संस्कृती स्वयं ही ऋषि-मुनियोंं की देन रहीं हैं। त्याग व तपस्या से हमें परिचित करवाने का श्रेय साधु-संतों को ही जाता हैं। त्याग-व-तपस्या वह मंत्र हैं जो यदि किसी भी कार्य के साथ जुड़ जाए तो उस कार्य से अमृत फल प्राप्त हो सकता हैं जो सदियों तक लाभकारी रहेगा। राजनीति बगैर त्याग-तपस्या मंत्र के देश के लिये कभी लाभकारी नहीं हो सकती। एक एसा नेता जो मात्र भोग और विलास में डुबा हो देशहित में कभी कार्यशील नहीं हो सकता। देश के राजनीतिज्ञ यदि साधू-संतो के आशिर्वाद तले कार्यरत रहे तो राजनेताओ के आचरण से भोग-विलास जैसी कुरीतियां मिटाई जा सकती हैं।
यह ठिक उसी तरह हैं जैसे एक परिवार कि खुशियों के लिये माता-पिता को अपने कइ निजी इच्छाओं का त्याग करना होता हैं व हर दिन आजीविका के लिये अनेकों प्रकार कि तपस्या से गुजरना होता हैं वैसे ही राजनेता के भाव भी देश के लिये परिवार व स्वयं के लिये अभिभावक स्वरूप ही होना चाहिये। इस तरह के भाव देश की राजनीति में यदि कोई जागृत कर सकता हैं तो वह मात्र हमारी मूल संस्कृती के दाता हमारे साधु-संत ही हैं। हमारे प्राचीन इतिहास में भी जितने भी प्रसिद्ध राजा-महाराजा हुए हैं उन सभी पर किसी ना किसी ऋषीमुनी, साधु या संतों का प्रभाव अवश्य रहा हैं। राजनीति में संतों की भूमिका को समझने के लिये हमें अपने प्राचीन संस्कृती के इतिहास को जानना जरूरी हैं।
संत-परम्परा हमारे लिये सदैव पूज्यनीय रहीं हैं। संतों के सम्मान मे क्या राजा क्या प्रजा सभी विनम्रता से झुकते आये हैं। उदाहरणतः श्री राम ऋषि वरिष्ठ के शिष्य थे, श्री कृष्ण मुनि संजीवनी के शिष्य थे। उस दौरान भी राजा कि संपूर्ण कार्यप्रणाली पर संतों का प्रभाव रहता था व बगैर संतों कि अनुमति के कोई भी राजा किसी विषेश कार्य को अमल में नहीं लाया करते थे। संतों का निर्णय इस लीये महत्वपूर्ण होते थे क्यूँ कि राजा के निर्णय राजकरण कि दृष्टि से हुवा करते थे किंतु संतों के निर्णय हमेंशा प्रकृती, प्रजा, राज्य व सृष्टि के कल्याण को केंद्रीत होते थे। एक राजा अपने महलों व सुरक्षा गैरों से बाहर नहीं आ पाता हैं किंतु संत तो गाँव-गाँव जा कर प्रवचन करते थे जिससे उन्हें प्रजा कि मनः स्थिती का ज्ञान होता था। कइ बार प्रजा स्वयं ही संतों के जरीये अपने राजा तक राज्य कि समस्याओं को ले जाया करती थी। ऐसा इसलिए भी होता था क्यों कि उन्हें पता होता था की संतों द्वारा सुझाये गये प्रस्तावों को राजा भी नकार नहीं सकते थे। इस प्रकार राजतंत्र में साधु-संत एक राजा के शासन व सृष्टि के कल्याण में कडी बन कर अहम भूमिका नीभाते थे।
आज जिन्हे भी साधु-संतों के राजनीतिक हस्तक्षेप पर आपत्ति हैं वे या तो भारतीयता को पहचानते नहीं या फिर वे भारतीयता के दुश्मन हैं। राजनीति से यदि संतों कि कृपा को अलग कर दिया गया तो राजनीति के कल्याणकारी होने कि संभावना मिटती चली जाएगी। एसा राज पनपेगा जो मात्र भोग और विलास कि सुखः-सुविधा को जुटाने में व्यस्त रहेगा जिसमे असमर्थ वर्ग सदा ही वंचित रहेगा। ऐसी राजव्यवस्था कमजोर वर्ग में आक्रोश को जन्म देती रहेगी और सदा प्रशासन के विरोध में ही नजर आयेगा।
राजनीति में साधु-संतों की भुमीका
– प्रजा हित के मुद्दों से प्रशासन को सचेत करना
– राजनेताओं को मेले आचरण से दुर रहने के लिये बाधित करना
– धर्म व राजकरण के बीच मध्यस्थता कर समन्वय स्थापित करना जिससे भारतीय सभ्यता, संस्कृती व धर्म का मान सदा बना रहे
– अपने अनुयाइयों को समय-समय पर राजनीति व राजनेताओं के प्रती जागृत व प्रेरित करना जिससे जनता का रूख एक राष्ट्रहितेशी राजनेता व राजनीति की और बना रहे इससे लोकतंत्र में एक बड़ा व सकारात्मक बदलाव संभव हैं
– निरंतर एसे प्रयास करना जिससे भोग-विलास के बजाय त्याग-तपस्या के भाव राजकरण पर हावी बने रहे